SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४] [मूलाचरे परिणामः प्रकृतिबन्धः । तेषां कर्मस्वरूपपरिणतानामनन्तानन्तानां जीवप्रदेशः सह संश्लेषः प्रदेशबन्धः। तेषां जीवप्रदेशानुश्लिष्टानां जीवस्वरूपान्यथाकरण'स्सोऽनुभागबन्धः । तेषामेव कर्मरूपेण परिणतानां पुदगलानां जीवप्रदेशः सह यावत्कालमवस्थितिः स स्थितिबन्धः । योगाज्जीवाः प्रकृतिबन्धं च करोति । कषायेण स्थितिबन्धमनुभागबन्धं च करोति अथवा योगः प्रकृतिबन्धं प्रदेशबन्धं च करोति। कषायाः स्थितिबन्धमनुभागबन्धं च कुर्वन्ति । यतोऽतोऽपरिणतस्य नित्यस्य, उच्छिन्नस्य निरन्वयक्षणिकस्य च बन्धस्थिते कारणं नास्ति । अथवाऽयमभिसम्बन्धः कर्तव्यो मिथ्यादृष्टचाद्युपशान्तानामेतद् व्याख्यानं वेदितव्यं । कुतो यतो योगः प्रकृतिप्रदेशबन्धौ करोति कषायाश्च स्थित्यनुभागौ कुर्वन्ति, अतोऽपरिणतयोरयोगिसिद्धयोः सयोग्ययोगिनोवोच्छिन्नस्य क्षीण कार्मण वर्गणा रूप से आये हुए पुद्गलों का ज्ञानावरण आदि भाव से परिणमन कर जाना प्रकृतिबन्ध है। उन्हीं कर्मस्वरूप से परिणत अनन्तानन्त पुद्गलों का जीव के प्रदेशों के साथ संश्लेष सम्बन्ध (गाढ़ सम्बन्ध) हो जाना प्रदेशबन्ध है । उन्हीं जीव के प्रदेशों में संश्लिष्ट हुए पुद्गलों का जीव के स्वरूप को अन्यथा करना अर्थात् जीव के प्रदेश में लगे हुए पुद्गल कर्म द्वारा जीव को सुख-दुःख रूप फल का अनुभव होना अनुभागबन्ध है। कर्म रूप से परिणत हए उन्हीं पुद्गलों का जीव के प्रदेशों के साथ जितने काल तक सम्बन्ध रहता है उसे स्थितिबन्ध कहते हैं। यह जीव योग से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध करता है तथा कषाय से स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध करता है। अथवा योग प्रकृति और प्रदेशबन्ध करता है और कषायें स्थिति तथा अनुभागबन्ध को करती हैं। जिस कारण से ऐसी बात है उसी कारण से अपरिणतनित्य और उच्छिन्न-निरन्वय क्षणिक पक्ष में अर्थात् आत्मा को सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा क्षणिक मान लेने पर बन्ध स्थिति के कारण नहीं बनते हैं। अथवा ऐसा सम्बन्ध करना कि मिथ्यादष्टि से लेकर सूक्ष्म साम्पराय नामक दशवें गूणस्थान पर्यन्त यह (बन्ध का) व्याख्यान समझना चाहिए; क्योंकि योग प्रकृति और प्रदेश बन्ध करते हैं तथा कषायें स्थिति और अनुभाग बन्ध करती हैं इसलिए अपरिणत अर्थात् उपशान्त मोह और उच्छिन्न अर्थात् क्षीणमोह आदि गुणस्थानों में स्थितिबन्ध के कारण नहीं हैं। उपशान्त मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय सत्ता में तो रहती है परन्तु उदय में न होने से अपरिणत रहती है और क्षीणमोह आदि गुणस्थानों में कषाय की सत्ता उच्छिन्न हो जाती है। इस तरह मिथ्यादृष्टि से लेकर दशम गुणस्थान तक चारों बन्ध होते हैं और ११, १२ तथा १३ वें गुणस्थान में मात्र प्रकृति और प्रदेशबन्ध होते हैं। अयोग केवली गुणस्थान में योग और कषाय-दोनों का अभाव हो जाने से पूर्ण अबन्ध रहता है। शंका-क्षीण कषाय और सयोग केवली के तो योग है । पुनः उनके योग का अभाव होने से बन्ध के कारण का न होना कैसे कहा ? समाधान--आपका कहना सत्य है, किन्तु वहाँ उनके वह योग अकिंचित्कर है अर्थात् कुछ कार्य करने में समर्थ नहीं है अतएव उसका अभाव ही कह दिया है । अर्थात् दशवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म निर्मूल नाश हो जाने से उसके निमित्त से होनेवाले स्थिति और अनुभागबन्ध १ क णशीलरसोऽ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy