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________________ १९८] [मूलाचारे स्वस्थिते: कारणं पुरुषः, छायादिकं च कारणं । अथ रूपादयः कस्य कारणमिति चेत्, रूपरसगन्धस्पर्शादयः कारणं कर्म बन्धस्य, जीवस्वरूपान्यशानिमित्तकर्मबन्धस्योपादानहेतवः रूपादिवन्तः पुद्गला:। कथं पुद्गला इति लभ्यन्ते, तेनाभेदोपचारात् तात्स्थ्याद्वा बन्धः पुद्गलरूपो भवतीत्यर्थः ।।२३३॥ कर्मबन्धो द्विधा पुण्यपापभेदादतस्तत्स्वरूपं तन्निमित्तं च प्रतिपादयन्नाह सम्मत्तेण सुदेण य विरवीए कसायणिग्गहगुणेहिं । जो परिणदो स पुण्णो तग्विवरीदेण पावं तु ॥२३४॥ सम्यक्त्वेन, श्रुतेन, विरत्या पंचमहाव्रतपरिणत्या, तथा कषायनिग्रहगुणरुत्तमक्षमामार्दवार्जवसन्तोषगुणैः चशब्दादिन्द्रियनिरोधश्च । जो परिणदो-यः परिणतो जीवस्तस्य यत्कर्मसंश्लिष्टं तत्पुण्यमित्युच्यते, अथवा सम्यक्त्वादिगुणपरिणतो जीवोऽपि पुण्यमित्युच्यते अभेदात् । तविवरीदेण-तद्विपरीतेन मिथ्यात्वाज्ञानासंयमकषायगुणैर्यः परिणतः पुद्गलनिचयस्तत्पापमेव । शुभप्रकृतयः पुण्यमशुभप्रकृतयः पापमिति पुण्यपापासवको जीवौ वानेन व्याख्याती ॥२४॥ है । उसी प्रकार से पुरुष अपने ठहरने में कारण है तथा छायादिक भी उसके ठहरने में कारण है। ये रूपादि किसके कारण हैं ? ये रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि कर्मबन्ध के लिए कारण हैं, क्योंकि जीव के स्वरूप से अन्यथाभूत जो रागादि परिणाम हैं उनके निमित्त से जो कर्मबन्ध होता है, उस कर्मबन्ध के लिए उपादानकारण रूपादिमान् पुद्गल द्रव्य वर्गणाएँ हैं। यहाँ गाथा में पुद्गल शब्द नहीं है पुनः आपने पुद्गल को कैसे लिया? रूपादि से अभिन्न उपचार से पुद्गल द्रव्य आ जाता है अथवा ये रूपादि उस पुद्गल में ही स्थित हैं इसलिए कर्मबन्ध पुद्गल रूप होता है ऐसा समझना। __कर्मबन्ध पुण्य और पाप के भेद से दो प्रकार का है, इसलिये उसका स्वरूप और उसके कारणों को बतलाते हुए कहते हैं गाथार्थ-सम्यक्त्व से, श्रुतज्ञान से, विरतिपरिणाम से और कषायों के निग्रहरूप गुणों से जो परिणत है वह पुण्य है और उससे विपरीत पाप है ।।२३४॥ प्राचारवृत्ति-सम्यक्त्व से, श्रुतज्ञान से, पाँच महाव्रतों के परिणतिरूप चारित्र से तथा क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायों को निग्रह करनेवाले उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव संतोष रूप गुणों से, एवं च शब्द से समझना कि इन्द्रियों के निरोध से जो जीव परिणत हो रहा है उसके जो कर्मों का संश्लेष होता है वह पुण्य कहलाता है । अथवा सम्यक्त्व आदि गुणों से परिणत हुआ जीव भी पुण्य कहलाता है क्योंकि जीव से उन गुणों में अभेद पाया जाता है। अथवा सम्यक्त्व आदि कारणों से जो कर्मबन्ध होता है वह पुण्य कहा जाता है। और उससे विपरीत अर्थात् मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम तथा कषायरूप गुणों से जो परिणत हुआ पुद्गलसमूह है वह पाप ही है । शुभ प्रकृतियाँ पुण्य हैं और अशुभ प्रकृतियाँ पाप हैं । अथवा पुण्यास्रव और पापस्रव को करने वाला जीव है ऐसा इस पुण्य और पाप पदार्थ का व्याख्यान किया गया है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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