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________________ पंचाचाराधिकारः] [१८६ इतरन्निकोतं चतुर्गतिनिकोतं यस्त्रसत्वं प्राप्तं । यद्यप्यत्र निकोतशब्दो नास्ति तथापि द्रष्टव्यो देशामर्शकत्वात्सूत्राणां। धादु-धातवः पृथिव्यप्तेजोवायुकायाश्चत्वारो धातव इत्युच्यन्ते । सत्त य-सप्त च । तर-तरूणां वक्षाणां। दस-दश । विलिदिएसु-विकलेन्द्रियाणां द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां । छच्चेव-षट्चैव । सुरणरयतिरिय-सुरनारकतिरश्चां। चउरो--चत्वारः। चोद्दश-चतुर्दश। मणएसु-मनुष्याणां। सदसहस्सा-शतसहस्राणि । नित्यनिकोतानां सप्त लक्षाणि योनीनामिति। चतुर्गतिनिकोतानां सप्तलक्षाणि, प्रथिवीकायिकानां सप्तलक्षाणि, अप्कायिकानां सप्तलक्षाणि, तेजःकायिकानां सप्तलक्षाणि, वायुकायानां सप्तलक्षाणि योनीनामिति सम्बन्धः । तरूणां दश लक्षाणि, द्वीन्द्रियाणां द्वे लक्षे, त्रींद्रियाणां द्वे लक्षे, चतुरिंद्रियाणां दे लक्षे. सराणां चत्वारि लक्षाणि, नारकाणां चत्वारि लक्षाणि, तिरश्चां पञ्चेन्द्रियाणां संज्ञिकानामसंज्ञिकानां च चत्वारि लक्षाणि । मनुष्याणां चतुर्दश लक्षाणि योनीनामिति । सर्वसमासेन चतुरशीतियोनिलक्षाणि भवन्तीति ॥२२६॥ मार्गणाद्वारेण च जीवभेदान् प्रतिपादयन्नाह तसथावरा य दुविहा जोगगइकसायइंदियविधीहि । बहुविह भव्वाभव्वा एस गदी जीवणिद्देसे ॥२२७॥ कायमार्गणाद्वारेण तसथावराय-त्रसनशीलास्त्रसा द्वीन्द्रियादयः स्थानशीला: स्थावरा पृथिव्यादिवनस्पत्यन्ताः । दुविहा-द्विप्रकारास्त्रसस्थावरभेदेन द्विप्रकारा जीवाः । जोग-योग आत्मप्रदेशपरिस्पन्दरूपो निगोद शब्द से कहे जाते हैं। इनसे भिन्न जिन्होंने त्रसपर्याय को प्राप्त कर लिया वे पुनः यदि निगोद जीव हुए हैं तो वे इतर-चतुर्गति निगोद कहलाते हैं। यद्यपि यहाँ गाथा में नित्य और इतर के साथ निगोद शब्द नहीं है तो भी उसे जोड़ लेना चाहिए, क्योंकि सूत्र देशामर्शक होते हैं। पृथिवी,जल, अग्नि और वायु इन चारों को धातु शब्द से कहा गया है। नित्यनिगोद, इतरनिगोद और चार धातु, इनकी योनियाँ सात-सात लाख हैं। दो-इन्द्रिय की दो लाख, तीन-इन्द्रिय की दो लाख और चार-इन्द्रिय की दो लाख ऐसे विकलेन्द्रिय जीवों की योनियाँ छह लाख हैं । देव, नारकी और संज्ञी-असंज्ञी भेद सहित पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की चार-चार लाख योनियाँ हैं। अर्थात् नित्यनिगोद की ७०००००+ चतुर्गतिनिगोद की ७०००००+ पृथिवीकायिक की ७०००००+जलकायिक की ७०००००+अग्निकायिक की ७०००००+वायूकायिक की ७०००००+ वनस्पतिकायिक की १००००००+द्वीन्द्रिय की २०००००+ श्रीन्द्रिय की २०००००+ चतुरिन्द्रिय की २०००००+देवों की ४०००००+ नारकी की ४०००००+ तिर्यंचों की ४०००००+मनुष्यों की १४०००००= ८४००००० योनियाँ होती हैं। __अब मार्गणाओं द्वारा जीवों के भेदों का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-त्रस और स्थावर के भेद से जीव दो प्रकार के हैं। योग, गति, कषाय और और इन्द्रियों के प्रकारों से ये भव्य अभव्य जीव अनेक प्रकार के हैं। जीव का वर्णन करने में यही गति है ॥२२७।। प्राचारवृत्ति—कायमार्गणा के द्वारा त्रस और स्थावर ऐसे दो भेद होते हैं। त्रसनम्वभाव-त्रस्त होने रूप स्वभाव वाले जीव त्रस कहलाते हैं, यहाँ त्रस् धातु त्रसित होने अर्थ में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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