SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२] [मूलाधारे सन्धिपर्व । समभंग-समः सदृशो भंगः छेदो यस्य तत्समभंगं त्वग्रहितं । अहीरहं न विद्यते हीरुकं बालरूपं यस्य तदहीरुहं पुन: सूत्राकारादिवजितं मंजिष्ठादिकं । छिन्नरहं-छेदेन रोहतीति च्छेदरुहं छिन्नो भिन्नश्च यो रोहमागच्छति । साहारण सरीरं-तत्साधारणं सामान्यं शरीरं साधारणशरीरं । तद्विवरीयं (च)-तद्विपरीतं च साधारणलक्षणविपरीतं । पत्तेयं प्रत्येक प्रत्येकशरीरं ॥२१६।। दिखती नहीं हैं वे गूढ़ शिरासंधि-पर्व वनस्पति हैं। जिनको तोड़ने पर समान भंग हो जाता है, छाल आदि नहीं रहती है वे समभंग हैं। जिनके तोड़ने पर हीरुक-बालरूप तंतु नहीं लगा रहता है, अन्तर्गत सूत्र नहीं लगा रहता है, वे अहीरुक हैं; जैसे कि मंजीठ आदि वनस्पतियाँ । जो छिन्न-भिन्न कर देने पर भी उग जाती हैं, छिन्नरुह हैं। इन लक्षण वाली वनस्पति को साधारणशरीर कहा है और इनसे विपरीत लक्षणवाली को प्रत्येकशरीर वनस्पति कहा है। विशेषार्थ यहाँ पर जो साधारण वनस्पति का लक्षण किया है इसके विषय में विशेष बात यह है कि 'गोम्मटसार' में इसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक का ही लक्षण माना है और आगे साधारण का लक्षण अलग किया है । अर्थात् पहले वनस्पति के प्रत्येक और साधारण दो भेद किये हैं। पुनः प्रत्येक के सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित ऐसे दो भेद कर दिये हैं। इसमें अप्रतिष्ठित प्रत्येक तो वह है जिसके आश्रित निगोदिया जीव नहीं हैं और सप्रतिष्ठित वह है जिसके आश्रित अनन्त निगोदिया जीव हैं । इसे ही अनन्तकाय कहा है और सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित के पहचान हेतु यही "गूढसिर संधिपव्वं...' गाथा दी है ।इसी'मूलाचार'की गाथा २१३ में भी जो 'अनन्तकाया' शब्द है वहाँ पर टीकाकार ने साधारण वनस्पति 3 किन्तु यही गाथा 'गोम्मटसार' में भी (गाथा क्रम १८६) है। उसमें 'अनन्तकाय' पद से सप्रतिष्ठित प्रत्येक अभिप्राय ग्रहण किया गया है। आगे साधारणशरीर वनस्पति का लक्षण करते हुए कहा है कि साहारणोदयेण णिगोदसरीरा हवंनि सामण्णा । ते पुण दुविहा जीवा वादरसुहुमा त्ति विण्णेया॥१९॥ अर्थात् जिन जीवों का शरीर साधारण नामकर्म के उदय से निगोदरूप होता है उन्हीं को सामान्य या साधारण कहते हैं । इनके दो भेद हैं, एक वादर और दूसरा सूक्ष्म । १क हितं महीरुहं पुनः। .निम्नलिखित गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक है वीजे जोणीभूवे जीवो उम्बकमदि सो व अण्णो वा । मा विय लसुणादीया पत्तेया पढमदाए ते॥२२॥ अर्थात् जिस योनिभूत बीज में वही जीव या कोई अन्य जीव आकर उत्पन्न हो वह और लहसुन आदि वनस्पति प्रथम अवस्था में अप्रतिष्ठित प्रत्येक रहते हैं । अर्थात् मूल कन्द आदि सभी वनस्पतियां जो कि सप्रतिष्ठित प्रत्येक मानी गई हैं वे भी अपनी उत्पत्ति के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अप्रतिष्ठित प्रत्येक ही रहती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy