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________________ पंचाचाराधिकारः ] [ १७९ 'अवयविरूपं व्याख्यायावयवभेदप्रतिपादनार्थमाह । अथवा वनस्पतिजातिद्विप्रकारा भवतीति वीजोद्भवा सम्मूच्छिमा च तत्र वीजोद्भवा मूलादिस्वरूपेण व्याख्याता । सम्मूच्छिमायाः स्वरूपप्रतिपादनार्थ माह कंदा मूला छल्ली बंध पत्तं पवाल पुप्फफलं । गुच्छा गुम्मा वल्ली तणाणि तह पव्व काया य ॥ २१४॥ कन्दा -- कन्दकः सूरणपद्मकन्दकादिः । मूला - मूलं पिण्डाधः प्ररोहकं हरिद्रकार्द्रकादिकं । छल्ली - त्वक् वृक्षादिवहिर्वल्कलं शैलयुतकादिकं च । खंधं-स्कन्धः पिंडशाखयोरन्तर्भाग : पालिभद्रादिकाः । 1 काय हैं जैसे सुपारी, नारियल आदि के वृक्ष । जो अनन्तजीवों के काय हैं वे अनन्तकाय हैं; जैसे स्नुही, गिलोय - गुरच आदि । ये छिन्नभिन्न हो जाने पर भी उग जाती हैं । एक-एक के प्रति पृथक्-पृथक् शरीर जिनका होता है वे प्रत्येकशरीर कहलाते हैं और एक जीव का जो शरीर है वही अनन्तानन्त जीवों का शरीर हो, उन का साधारण ही आहार और श्वासोच्छास हो वे अनन्तकाय हैं । अर्थात् जिनके पृथक्-पृथक् शरीर आदि हैं वे प्रत्येककाय जीव हैं और जिनका अनन्त - साधारण काय है वे अनन्तकाय नाम वाले हैं । ये मूल आदि और संमूर्च्छन आदि वनस्पति प्रत्येक और अनन्तकाय भेद से दो प्रकार की होती हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । भावार्थ - जो वनस्पति मूल अग्र पर्व बीज आदि से उत्पन्न होती हैं उनमें ये मूलादि प्रधान हैं। तथा जो मिट्टी, पानी आदि के संयोग से बिना मूल बीज आदि के उत्पन्न होती हैं वे संमूर्च्छन हैं । यद्यपि एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक जीव संमूर्च्छन ही होते हैं और पंचेन्द्रियों में भी संमूर्च्छन होते हैं, फिर भी यहाँ मूल पर्व वीजादि की विवक्षा का न होना ही संमूर्च्छन वनस्पति में विवक्षित है; जैसे घास आदि । अवयवी का स्वरूप बताकर अवयवों के भेद प्रतिपादन करने हेतु कहते हैं - अथवा वनस्पति जाति के दो प्रकार हैं- - एक, बीज से उत्पन्न होनेवाली और दूसरी, संमूर्च्छन । उसमें से बीज से होनेवाली वनस्पतियाँ मूलज अग्रज आदि के स्वरूप से बतलाई जा चुकी हैं, अब संमूर्च्छन वनस्पतियों का स्वरूप बतलाते हुए अगली गाथा कहते हैं गाथार्थ – कन्द, मूल, छाल, स्कन्ध, पत्ता, कोंपल, फूल, फल, गुच्छा, गुल्म, बेल, तृण और पर्वकाय ये वनस्पति हैं ।। २१४ || श्राचारवृत्ति - सूरण, पद्मकन्द आदि कन्द हैं। मूल अर्थात् पिण्ड के नीचे भाग से जो उत्पन्न होती हैं वे मूलकाय हैं; जैसे हल्दी, अदरख आदि । वृक्षादि के बाहर का वल्कल छाल कहलाता है । पिण्ड और शाखा का मध्यभाग स्कन्ध है; जैसे पालिभद्र आदि । अंकुर के अनन्तर की अवस्था पत्ता है । पत्तों की पूर्व अवस्था प्रवाल है जिसे कोंपल कहते हैं । जो फल में कारण १ क अवश्यवरूपं । २, ३, क पेडा° । # कोश में पारिभद्र के अर्थ में - मूंगे का वृक्ष, देवदारू वृक्ष, सरलवृक्ष और नीम के वृक्ष ऐसे चार तरह के वृक्ष माने हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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