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[मूलाचारे अथवा यदि जीव को ज्ञानरूप ही मान लोगे तो ज्ञान तो एक गुण है और जीव गुणी है, ज्ञान गुण के ही मानने से उसके आश्रय का अभाव हो जायेगा अर्थात् आश्रयभूत जीव पदार्थ नहीं सिद्ध हो सकेगा। यदि जीवादि को उपचार कहोगे तो मुख्य का अभाव हो जायेगा और मुख्य के बिना उपचार की प्रवृत्ति भी कैसे हो सकेगी। तथा इन एकान्त मान्यताओं से प्रमाण और प्रमेय अर्थात् ज्ञान और ज्ञेय रूप व्यवहार का भी अभाव हो जायेगा। और तो और, लोकव्यवहार का ही अभाव हो जाता है अर्थात् जो कुछ भी लोकव्यवहार चल रहा है वह सब समाप्त हो जावेगा।
सत्यार्थस्वरूप से जाने गये ये जीव-अजीव सम्यक्त्व हैं। उसी प्रकार से सत्यार्थ स्वरूप से जाने गये पुण्य और पाप ही सम्यक्त्व हैं। तथैव सत्यार्थ स्वरूप से जाने गये आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ही सम्यक्त्व हैं।
शंका ये जाने गये सभी सम्यक्त्व कैसे हैं ? सत्यार्थरूप से जाने गये इनमें से जो प्रधान है वह सम्यक्त्व है ऐसा कहना तो युक्त हो भी सकता है ?
__ समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह अधिगति-ज्ञान श्रद्धानरूप ही है अन्यथा यदि ऐसा नहीं मानोगे, तो परमार्थ रूप से जानने का अभाव हो जायेगा। अथवा कारण में कार्य का उपचार होने से जाने गये जीवादि पदार्थों को ही सम्यक्त्व कह दिया है। किन्तु वास्तव में परमार्थरूप जीवादि पदार्थों का जो श्रद्धान है वह सम्यक्त्व है। इस न्याय से यहाँ पर अधिगम लक्षण सम्यग्दर्शन को कहा गया है-ऐसा समझना।
विशेषार्थ—यहाँ पर सम्यग्दर्शन के विषयभूत पदार्थों को ही सम्यग्दर्शन कह दिया है। चूंकि परमार्थ रूप में जाने गये ये पदार्थ ही श्रद्धा के विषय हैं अतः ये श्रद्धान में कारण हैं और श्रद्धान होना यह कार्य है जो कि सम्यक्त्व है किन्तु कारणभूत पदार्थों में कार्यभूत श्रद्धान का अध्यारोप करके उन पदार्थों को ही सम्यक्त्व कह दिया है।
यही गाथा 'समयसार' में भी है जिसका अर्थ भी श्री अमृतचन्द्र सूरि और श्री जयसेनाचार्य ने इसी प्रकार से किया है । यथा
भयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पृण्णपाच ।
आसवसंवरणिज्जर बंधो मोवखो य सम्मत्तं ॥१३॥ अर्थात् परमार्थ रूप जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नव पदार्थ सम्यक्त्व कहे जाते हैं।
तात्पर्यवृत्ति-भूयत्थेण-भूतार्थेन निश्चयनयेन शुद्धनयेन अभिगदा-अभिगता निर्णीता निश्चिता ज्ञाताः संतः के ते? जीवाजीवा य पुण्णपावं च आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्लो य-जीवाजीवपुण्यपापासवसंवर निर्जरा बन्धमोक्षस्वरूपानव पदार्थाः सम्मत्तं । त एवाभेदोपचारेण सम्यक्त्वविषयत्वात्कारणत्वात्सम्यक्त्वं भवन्ति । निश्चयेन परिणाम एव सम्यक्त्वमिति ।....'
अर्थ-भूतार्थरूप निश्चयनय-शुद्धनय के द्वारा निर्णय किये गये, निश्चय किये गये, जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष स्वरूप जो नव
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