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________________ १५२] एवं गुणवदिरित्तो जदि गणधारितं करेदि श्रज्जाणं । चत्तारि कालगा से गच्छादिविराहणा होज्ज ॥१८५॥ I एवं – अनेन प्रकारेण । एतैर्गुणैः । वदिरित्तो - व्यतिरिक्तो मुक्तः । जदि -- यदि । गणधारित्तंगणधारित्वं प्रतिक्रमणादिकं । करेदि - करोति । अज्जाणं- आर्याणां तपस्विनीनां । चत्तारि चत्वारः । कालगा --- कालकाः गणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थकाला आद्या वा विराधिता भवन्तीति वाक्यशेषः । अथवा कलिकाग्रहणेन प्रायश्चित्तानिपरिगृह्यन्ते चत्वारि प्रायश्चित्तानि च्छेदमूलपरिहारपारंचिकानि । अथवा चत्वारो मासाः कांजिकभक्ताहारेण । से—तस्य आर्यागणधरस्य भवन्तीत्यर्थः । गच्छादि-गच्छ ऋषिकुलं आदिषां ते गच्छादयस्तेषां विराहणा- विराधना विनाशो विपरिणामो वा गच्छादिविराधना गच्छात्मगणकुलश्रावक मिथ्यादृष्ट्यादयो विराधिता भवन्तीत्यर्थः अथवा गच्छात्म विनाशः । होज्ज-भवेत् । पूर्वोक्तगुण व्यतिरिक्तो द्यार्याणां गणधरत्वं करोति तदानीं तस्य चत्वारः काला विनाशमुपयान्ति, अथवा चत्वारि प्रायश्चित्तानि लभते गच्छादेविराधना च भवेदिति ।। १८५ ॥ * गाथार्थ - इन गुणों से रहित आचार्य यदि आर्यिकाओं का आचार्यत्व करता है तो उसके चार काल विराधित होते हैं और गच्छ की विराधना हो जाती है ।। १८५ ॥ आचारवृत्ति - उपर्युक्त गुणों से रहित मुनि यदि आर्यिकाओं का प्रतिक्रमण आदि सुनकर उन्हें प्रायश्चित्त आदि देने रूप गणधरत्व करता है तो उसके गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ इन चार कालों की अथवा आदि के चार काल - दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषण और आत्मसंकार इन चारों कालों की विराधना हो जाती है । अथवा 'कलिका' शब्द से प्रायश्चित्तादि का ग्रहण हो जाता है । अर्थात् उस आचार्य को छेद, मूल, परिहार और पारंचिक ऐसे चार प्रायश्चित्त लेने पड़ते हैं । अथवा उसे चार महीने तक कांजिक भोजन का आहार लेना पड़ता है । तथा ऋषि कुल रूप जो गच्छ-संघ है वह अपना संघ, आदि शब्द से कुल, श्रावक और मिथ्यादृष्टि आदि, इनकी भी विराधना हो जाती है । अर्थात् गुणशून्य आचार्य यदि आर्यिकाओं का पोषण करते हैं तो व्यवस्था बिगड़ जाने से संघ के साधु उनकी आज्ञा पालन नहीं करेंगे । इससे संघ का विनाश हो जायेगा । तात्पर्य यह हुआ कि पूर्वोक्त गुणों से रहित आचार्य यदि आर्यिकाओं का आचार्य बनता है तो उसके गणपोषण आदि चार काल नष्ट हो जाते हैं अथवा चार प्रकार के प्रायश्चित्त उसे लेने पड़ते हैं और उसके संघ आदि की विराधना -- अव्यवस्था हो जाती है । छेद प्रायश्चित्त की निम्नलिखित गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक है— [मूलाचारे Jain Education International दीक्षादि कालों में यदि कोई एक आदि नष्ट हो जावे तो उसका प्रायश्चित्त बताते हैं आयंबिल निव्वियडी एयट्ठाणं तहेव खमणं च । एक्वक एकमासं करेदि जदि कालगं एक्कं ॥ ६५ ॥ अर्थ- दीक्षाकाल आदि छह कालों में से यदि किसी एक-एक काल का विनाश हुआ है तो वह मुनि आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान और उपवास इन चारों में से एक-एक को एक-एक महीना तक करे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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