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________________ वाक्य-वर्णोपचितं, घातिकर्म-क्षयोत्पन्न-केवलज्ञान-प्रबुद्वाशेष-गुणपर्यायखचित-षद्रव्यनवपदार्थ-जिनवरोपदिष्टं, द्वादशविधतपोनुष्ठानोत्पन्नानेकप्रकारद्धि-समन्वितं गणधरदेवरचितं, मूलगुणोत्तर-गुणस्वरूपविकल्पोपायसाधनसहायफलनिरूपणं प्रवणमाचारांगमाचार्यपारम्पर्यप्रवर्तमानमल्पबलमेधायुःशिष्यनिमित्तं द्वादशाधिकारैरुपसंहर्तुकामः स्वस्य श्रोतृणां च प्रारब्धकार्यप्रत्यूहनिराकरणक्षमं शुभपरिणामं विदधच्छी वट्टकेराचार्यः प्रथमतरं तावन्मलगुणाधिकार-प्रतिपादनार्थ मंगलपूविकां प्रतिज्ञा विधत्ते मूलगुणेस्वित्यादि ।" इस भूमिका में टीकाकार ने बारह अधिकारों के नाम क्रम से दे दिए हैं। आगे इसी क्रम से उन अधिकारों को लिया है । तथा ग्रन्थकर्ता का नाम 'श्री वट्टकेराचार्य' दिया है। ग्रन्थ समाप्ति में उन्होंने लिखा है"इति श्रीमदाचार्यवर्य - वट्टकेरिप्रणीतमूलाचारे श्रीवसुनन्दि - प्रणीतटीकासहिते द्वादशोऽधिकारः।" स्रग्धरा छन्द में एक श्लोक भी है। और अन्त में दिया है-- "इति मूलाचारविवृत्ती द्वादशोऽध्यायः कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचाराख्यविवृतिः । कृतिरियं वसुनन्दिनः श्री श्रमणस्य'।" श्री मेघचन्द्राचार्य अपनी कन्नड़ी टीका के प्रारम्भ में लिखते हैं वीरं जिनेश्वरं नत्वा मंदप्रज्ञानुरोधतः । मूलाचारस्य सद्वत्तिं वक्ष्ये कर्णाटभाषया ।। परमसंयमोत्कर्षजातातिशयरू श्रीमदहत्प्रणीत-परमागमाम्भोधिपारगरु, श्री वीरवर्द्ध मानस्वामितीर्थोद्धारकर्मी, आर्यनिषव्यरुं, समस्ताचार्यवर्यरुं, मप्पश्री कोण्डकुन्दाचार्यरुं, परानुग्रहबुद्धियिं, कालानुरूपमागि चरणानुयोगनं संक्षेपिसि मंदबुद्धिगलप्प शिष्यसंतानक्के किरिदरोले प्रतीतमप्पंतागि सकलाचारार्थमं निरूपिसुवाचारग्रन्थमं पेलुथ्तवा ग्रन्थदमोदलोलु निर्विघ्नतः शास्त्रसमाप्त्यादि चतुर्विधफलमेक्षिसि नमस्कार गाथेयं पेलूद पदेंते दोडे।" अर्थ-उत्कृष्ट संयम से जिन्हें अतिशय प्राप्त हुआ है, अर्थात् जिनको चारण ऋद्धि की प्राप्ति हई है, जो अर्हत्प्रणीत परमागम समुद्र के पारगामी हुए हैं, जिन्होंने श्री वर्द्धमान स्वामी के तीर्थ का उद्धार किया है, जिनकी आर्यजन सेवा करते हैं, जिनको समस्त आचार्यों में श्रेष्ठता प्राप्त हुई है, ऐसे श्री कोण्डकुन्दाचार्य ने परानुग्रहबुद्धि धारण कर कालानुरूप चरणानुयोग का संक्षेप करके मन्दबुद्धि शिष्यों को बोध कराने के लिए सकल आचार के अर्थ को मन में धारण कर यह आचार ग्रन्थ रचा है। यद्र प्रारम्भ में भमिका है। प्रत्येक अध्याय के अन्त में-"यह मलाचारग्रन्थ श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित है।" ऐसा दिया है। इस ग्रन्थ की टीका के अन्त में भी ऐसा उल्लेख है १. मूलाचार द्वि. भाग, पृ. ३२४ । (माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई) -आध उपोद्घात । १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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