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________________ सामाचाराधिकारः ] [ १४५ एकत्र । जोगो -- योग उपयुञ्जां । अथवाऽखण्डोऽयं शब्दः सहयोगः । दैवसिकादिक्रिया सहचरिता वेलाः परिगृह्यन्ते देवसिकादिवेलासु सहयोगः दैवसिकादिक्रियाः सर्वैरेकत्र कर्तव्या भवंति । दैवसिकादिषु ऋषिदेव - वन्दनादिषु च क्रिप्रासु सहयोगो भवति कर्तव्य इति ॥ १७५ ॥ अथ यद्यपराधस्तत्रोत्पद्यते किं तत्रैव शोध्यते उतान्यत्र तत्रैवेत्याह मणवयणकायजोगेणुप्पण्णवराध जस्स गच्छम्मि । मिच्छाकारं किच्चा णियत्तणं होदि कायव्वं ॥ १७६ ॥ मणवयण कायजोगेण - मनोवचनकाययोगः । उप्पण्ण- उत्पन्नः संजातः । अवराध — अपराधो व्रताद्यतिचारः । जस्स - यस्व । गच्छमि गच्छे गणे चतुः प्रकारे संघे । अथवा जस्स - यस्मिन् गच्छे। मिच्छाकारं किच्चा - मिथ्याकारं कृत्वा पश्चात्तापं कृत्वा । नियत्तणं निवर्तनम प्रवर्तनमात्मनः । होदि भवति । कादव्वं कर्तव्यं करणीयं । यस्मिन् गच्छे यस्य मतोवचनकाययोगैरपराध उत्पन्नस्तेन तस्मिन् गच्छे मिथ्याकारं कृत्वा निवर्तनं भवति कर्तव्यमिति । अथवा जस्स गच्छे--यस्य पार्श्वेऽपराध उत्पन्नस्तेन सह मर्षणं कृत्वा तस्मादपराधान्निवर्तनं भवति कार्यमिति ॥ १७६ ॥ तत्र गच्छे वसता तेन किं सर्वैः सहाला पोऽवस्थानं च क्रियते नेत्याह- वन्दना करने में और देववन्दना -- सामायिक करने में तथा आदि शब्द से स्वाध्याय आदि क्रियाओं में सह अर्थात् मिलकर एक जगह योग करना चाहिए । अथवा सहयोग शब्द एक अखण्ड पद है । उससे दैवसिक आदि क्रियाओं से सहचरित समय लिया जाता है अर्थात् दैवसिक प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं के समय सहयोगी होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि दैवसिक प्रतिक्रमण वन्दना आदि जितनी भी क्रियाएँ हैं, सभी, मुनियों को एक साथ एक स्थान में ही करनी होती हैं । देवसिक आदि प्रतिक्रमणों में और गुरुवन्दना, देववन्दना आदि क्रियाओं में आगन्तुक मुनि सबके साथ ही रहता है । यदि कोई अपराध इस संघ में हो जाता है तो वहीं पर उसका शोधन करना चाहिए अथवा अन्यत्र संघ में ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हुए कहते हैं कि वहीं पर ही शोधन करना चाहिए -- गाथार्थ - मन, वचन और काय के योगों से जिस संघ में अपराध उत्पन्न हुआ है मिथ्याकार करके वहीं उसको दूर करना होता है ॥ १७६ ॥ श्राचारवृत्ति - जिस गच्छ - गण या चतुविध संघ में व्रतादिकों में अतिचार रूप अपराध हुआ है उसो संघ में उस मुनि को मिथ्याकार -- पश्चात्ताप करके अपने अन्तरंग से वह दोष निकाल देना चाहिए । अथवा जिस किसी के साथ अपराध हो गया हो उन्हीं से क्षमा कराके उस अपराध से अपने को दूर करना होता है । उस संघ में रहते हुए मुनि को सभी के साथ बोलना या बैठना करना होता है या नहीं ? सो ही बताते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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