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________________ १४२] [मूलालाई दिव्यतिक्रमणं करोति सूत्रार्थशिक्षालोभेन शिष्यस्तदानीं किं स्यात् ? असमाध्यस्वाध्यायकलहव्याधिवियोगाः स्युः ॥१७१॥ न केवलं शास्त्रपठननिमित्तं शुद्धिः क्रियते तेन किंतु जीवदयानिमित्तं चेति संथारवासयाणं पाणीलेहाहि सणुज्जोवे। जत्तेणुभये काले पडिलेहा होदि कायव्वा ॥१७२॥ संथारवासयाणं-संस्तारश्चतुर्धा भूमिशिलाफलकतृणभेदात् आवासोऽवकाश: आकाशप्रदेशसमूहः संस्तरादिप्रदेश इत्यर्थः। संस्तरश्चावकाशश्च संस्तरावकाशी तावादिर्येषां ते संस्तरावकाशादयः बहुवचननिर्देशादादिशब्दोपादानं तेषां संस्तरावकाशादीनां। पाणीलेहाहि-पाणिलेखाभिहस्ततलगतलेखाभिः । दसणुज्जोवे-दर्शनस्य चक्षुष उद्योतः प्रकाशो दर्शनोद्योतस्तस्मिन् दर्शनोद्योते पाणिरेखादर्शनहेतुभूते चक्षुप्रकाशे यावता चक्षुरुद्योतेन हस्तरेखा दृश्यन्ते तावति चक्षुषः प्रकाशेऽथवा पाणिरेखानामभिदर्शनं परिच्छेदस्तस्य निमित्तभूतोद्योते पाणिरेखाभिर्दर्शनोद्योते । अथवा प्राणिनो लिहत्यास्वादयन्ति यस्मिन् स प्राणिलेहः स चासो अभिदर्शनोद्योतश्च तस्मिन् प्राणिभोजननिमित्तनयनप्रसरे इत्यर्थः । जत्तेण-यत्नेन तात्पर्येण । उभये कालेउभयोः कालयोः पूर्वाह्नेऽपराहे च संस्तरादानदानकाल इत्यर्थः । पडिलेहा–प्रतिलेखा शोधनं सन्मार्जनं । होइ-भवति । कावव्वा-कर्तव्या । उभयोः कालयोः हस्तलेखादर्शनोद्योते संजाते यत्नेन संस्तरावकाशादीनां प्रतिलेखा भवति कर्त्तव्येति ॥१७२।। अर्थात् जो मुनि द्रव्यादि शुद्धि की अवहेलना करके यदि सूत्रार्थ के लोभ से अध्ययन करते हैं तो उनके उस समय असमाधि आदि हानियाँ हो जाया करती हैं। केवल शास्त्रों के पढ़ने के लिए ही शुद्धि की जाती है ऐसी बात नहीं है, उस मुनि को जीवदया के निमित्त भी शुद्धि करना चाहिए- . गाथार्थ हाथ की रेखा दिखने योग्य प्रकाश में दोनों काल में यत्नपूर्वक संस्तर और स्थान आदि का प्रतिलेखन करना होता है ॥ १७२॥ आचारवृत्ति-संस्तर चार प्रकार का है-भूमिसंस्तर, शिलासंस्तर, फलकसंस्तर और तणसंस्तर । उस संस्तर के स्थान को आवास कहते हैं अर्थात् जो आकाश-प्रदेशों का समूह है वही आवास है। शुद्ध, निर्जन्तुक भूमि पर सोना भूमिसंस्तर है। सोने योग्य पाषाण की शिला शिलासंस्तर है। काष्ठ के पार्ट को फलकसंस्तर कहते हैं और तणों के समह को तणसंस्तर कहते हैं । इन चार प्रकार के संस्तर के स्थान को, कमण्डलु पुस्तक आदि को, चक्षु से हाथ की रेखाओं के दिखने योग्य प्रकाश हो जाने पर अथवा जितने प्रकाश में हाथ की रेखाएँ दिखती हैं उतने प्रकाश के होने पर पूर्वाण्हकाल में और अपराण्हकाल में इनका पिच्छिका से शोधन करना चाहिए। अथवा प्राणियों के भोजन के निमित्त चक्षु का प्रकाश होने पर प्रयत्नपूर्वक दोनों समय संस्तर आदि को शोधन करना चाहिए । अर्थात् सायंकाल हाथ की रेखा दिखने योग्य प्रकाश रहने पर संस्तर आदि के स्थान को पिच्छिका से परिमार्जित करके पाटे आदि विछा लेना चाहिए और प्रातःकाल भी इतना प्रकाश हो जाने पर संस्तर और स्थान आदि को देख-शोध कर उसे हटा देना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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