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________________ ही, उससे पूर्व से भी हो सकती है। इसके लिए स्वयं वसुनन्दि आचार्य ने लिखा है पर्याप्ति अधिकार में “वावीस सत्त तिण्णि य..." ये कुल कोटि की प्रतिपादक चार गाथायें हैं। उनकी टीका में लिखते हैं-- "एतानि गाथासूत्राणि पंचाचारे व्याख्यातानि अतो नेह पुनव्याख्यायते पुनरुक्तत्वादिति । १६६-१६७-१६८-१६६ एतेषां संस्कृतच्छाया अपि तत एव ज्ञेयाः ।" इससे एक बात और स्पष्ट हो जाती है कि ग्रन्थकार एक बार ली गयी गाथाओं को आवश्यकतानुसार उसी ग्रन्थ में पुनः भी प्रयुक्त करते रहे हैं। इसी पर्याप्ति अधिकार में देवियों की आयु के बारे में दो गाथाएँ आयी हैं । यथा पंचादी वेहिं जुदा सत्तावीसा य पल्ल देवीणं । तत्तो सत्तुत्तरिया जावद अरणप्पयं कप्पं ॥७६।। सौधर्म स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु ५ पल्य, ईशान में ७ पल्य, सानत्कुमार में ६, माहेन्द्र में ११, ब्रह्म में १३, ब्रह्मोत्तर में १५, लांतव में १७, कापिष्ठ में १६, शुक्र में २१, महाशुक्र में २३, शतार में २५, सहस्रार में २७, आनत में ३४, प्राणत में ४१, आरण में ४८ और अच्युत स्वर्ग में ५५ पल्य है। दूसरा उपदेश ऐसा है पणयं दस सत्तधियं पणवीसं तीसमेव पंचधियं । चत्तालं पणदालं पण्णाओ पण्णपण्णाओ ॥८॥ सौधर्म, ईशान इन दो स्वर्गों में देवियों की उत्कृष्ट आयु ५ पल्य, सानत्कुमारमाहेन्द्र में १७, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर में २५, लांतव-कापिष्ठ में ३५, शुक्र-महाशुक्र में ४०, शतारसहस्रार में ४५, आनत-प्राणत में ५० और आरण-अच्युत में ५५ पल्य की है। यहाँ पर टीका में आचार्य वसुनन्दि कहते हैं"द्वाप्युपदेशी ग्राह्यौ सूत्रद्वयोपदेशात्। द्वयोर्मध्य एकेन सत्येन भवितव्यं, नात्र संदेह मिथ्यात्वं, यदर्हत्प्रणीतं तत्सत्यमिति संदेहाभावात् । छद्मस्थस्तु विवेकः कर्तु न शक्यतेऽतो मिथ्यात्वभयादेव द्वयोर्ग्रहणमिति'।" ये दोनों ही उपदेश ग्राह्य हैं । क्योंकि सूत्र में दोनों कहे गए हैं। शंका-दोनों में एक ही सत्य होना चाहिए, अन्यथा संशय मिथ्यात्व हो जायेगा ? समाधान नहीं, यहाँ संशय मिथ्यात्व नहीं है क्योंकि जो अहंत देव के द्वारा कहा हुआ है वही सत्य है। इसमें संदेह नहीं है। हम लोग छद्मस्थ हैं। हम लोगों के द्वारा यह विवेक करना शक्य नहीं है कि "इन दोनों में से यह ही सत्य है" इसलिए मिथ्यात्व के भय से दोनों को ही ग्रहण करना चाहिए । अर्थात् यदि पहली गाथा के कथन को सत्य कह दिया और था दूसरा सत्य । अथवा दूसरी गाथा को सत्य कह दिया और था पहला सत्य, तो हम मिथ्या १. पर्याप्त्यधिकार। आद्य उपोद्घात | १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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