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________________ सामाचारधिकार: [१०७ नमस्कारकरणपूर्वकं प्रतिज्ञाकरणं । अर्हतस्त्रिलोक पूजनीयांस्त्रिविधेन वन्दित्वा समासादानुपूर्व्या सामाचारं वक्ष्ये इति। सामाचारशब्दस्य निरुक्त्यर्थं संग्रहगाथासूत्रमाह समदा सामाचारो सम्माचारो समो व प्राचारो। . सव्वेसि सम्माणं सामाचारो दु प्राचारो॥१२३॥ चतुभिरर्थः सामाचारशब्दो व्युत्पाद्यते, तद्यथा-समदासामाचारो-समस्य भावः समता रागद्वेषाभावः स समाचारः अथवा त्रिकालदेववन्दना पंचनमस्कारपरिणामो वा समता, सामायिकव्रतं वा । सम्माचारो -सम्यक् शोभनं निरतिचारं, मूलगुणानुष्ठानमाचरणं समाचारः सम्यगाचारः अथवा सम्यगाचरणमवबोधो निर्दोषभिक्षाग्रहणं वा समाचारः, चरेर्भक्षणगत्यर्थत्वात् । समो व आचारी-समो वा आचारः पंचाचारः। को बतलाते हैं, अथवा पूर्वाचार्य को परम्परा के अनुसार कथन करने को भी पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। तथा क्षणिक पक्ष और नित्य पक्ष का निराकण करने के लिए ही पूर्वानुपूर्वी का कथन है. क्योंकि सर्वथा क्षणिक में पूर्वाचार्य परम्परा से कथन और सर्वथा नित्य पक्ष में भी पूर्वाचार्य परम्परा का कथन असम्भव है। अतः इन दोनों एकान्तों का निराकण करके अनेकान्त को स्थापित करने के लिए आचार्य ने आनुपूर्वी शब्द का प्रयोग किया है। 'वंदित्वा' इस पद में क्त्वा प्रत्यय होने से यह अर्थ होता है कि मैं नमस्कार करके अपने प्रतिपाद्य विषय की प्रतिज्ञा करता हूँ अर्थात् नमस्कार करके सामाचार को कहूँगा ऐसी प्रतिज्ञा आचार्य ने की है। तात्पर्य यह कि मैं त्रिभुवन से पूजनीय त्रिकालवर्ती समस्त अर्हन्तों को नमस्कार करके संक्षेप से गुरु परम्परा के अनुसार सामाचार को कहूँगा। अब सामाचार शब्द के निरुक्ति अर्थ का संग्रह करनेवाला गाथासूत्र कहते हैं गाथार्थ-समता सामाचार सम्यक् आचार अथवा सम आचार या सभी का समान आचार ये सामाचार शब्द के अर्थ हैं ॥१२३॥ प्राचारवृत्ति यहाँ पर चार प्रकार के अर्थों से सामाचार शब्द की व्युत्पत्ति करते हैं। १. समता समाचार-सम का भाव समता है-रागद्वेष का अभाव होना समता समाचार है । अथवा त्रिकाल देव वन्दना करना या पंच नमस्कार रूप परिणाम होना समता है, अथवा सामायिक व्रत को समता कहते हैं । ये सब समता समाचार हैं। २. सम्यक् प्राचार-सम्यक् शोभन निरतिचार मूलगुणों का अनुष्ठान अर्थात् आचरण आचार । अर्थात् निरतिचार मूलगुणों को पालना यह सम्यक् आचार रूप समाचार है। अथवा सम्यक् आचरण-ज्ञान अथवा निर्दोष भिक्षा ग्रहण करना यह समाचार है। अर्थात् चर धातु भक्षण करना और गमन करना इन दो अर्थ में मानी गयी है और गमन अर्थवाली सभी धातुएँ ज्ञान अर्थवाली भी होती हैं इस नियम से चर् धातु का एक बार ज्ञान अर्थ करना तब समीचीन जानना अर्थ विवक्षित हुआ। और, एक बार भक्षण अर्थ करने पर निर्दोष आहार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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