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________________ ३. अथ संक्षेपप्रत्याख्यानाधिकारः बृहत्प्रत्याख्यानं व्याख्यातमिदानीं यदि भशमाकस्मिकं सिंहव्याघ्राग्निव्याध्यादिनिमित्तं मरणमुपस्थितं स्यात् तत्र कस्मिन् ग्रन्थे भावना क्रियते इति पृष्टे तदवस्थायां यद्योग्यं संक्षेपतरं प्रत्याख्यानं तदर्थं तृतीयपधिकारमाह एस करेमि पणामं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स । सेसाणं च जिणाणं सगणगणधराणं च सव्वेसि ॥१०॥ एस-एष आत्मनः प्रत्यक्षवचनमेतत् एषोऽहं अतिसंक्षेपरूपप्रत्याख्यानकथनोद्यतः एवं च कृत्वा नात्र संग्रहवाक्यं कृतं सामर्थ्यलब्धत्वात् तस्येति। करेमि–करोमि कुर्वे वा। पणाम-प्रणामं स्तुति। जिणवरबसहस्स-जिनानां वराः प्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यन्तास्तेपां वृषभः प्रधानः सयोगी अयोगी सिद्धो वा तस्य जिनवरवृषभस्य । वड्ढमाणस्स-वर्धमानस्य । सेसाणं च--शेषाणां च । जिणाणं-जिनानां सर्वेषां च । सगणगणधराणं च-सह गणेन यतिमुन्यष्यनगार दम्बकेन वर्तते इति सगणास्ते च ते गणधराश्च सगणगणधराः तेषां च श्रीगौतमप्रभुतीनां च । सन्वेसि-सर्वेषां । एषोहं ग्रन्थकरणाभिप्राय:, जिनवरवृषभस्य वर्धमानस्य शेषाणां च जिनानां च सर्वेषां च गगणगणधराणां च प्रणाम कूवें अथवा सगणगणधराणां जिनानां विशेषणं द्रष्टव्यमिति ॥१०८॥ बृहत्प्रत्याख्यान का व्याख्यान कर चुके हैं। अब यदि पुनः सिंह, व्याघ्र, अग्नि या रोग आदि के निमित्त से आकस्मिक मरण उपस्थित हो जाए तो उस समय किस ग्रन्थ में भावना करनी चाहिए ? ऐसा शिष्य के द्वारा प्रश्न किये जाने पर उस अवस्था में जो संक्षेपतरसंक्षेप से भी संक्षेप प्रत्याख्यान उचित है उसे बतलाने के लिए आचार्य तीसरा अधिकार कहते हैं गाथार्थ-यह मैं जिनवर में प्रधान ऐसे वर्धमान भगवान् को, शेष सभी तीर्थंकरों को और गणसहित सभी गणधर देवों को प्रणाम करता हूँ।।१०८।। प्राचारवृत्ति—यहाँ 'एषः' शब्द स्वयं को प्रत्यक्ष कहनेवाला है अर्थात् संक्षेप रूप से प्रत्याख्यान को कहने में उद्यत हुआ यह मैं—वट्टकेर आचार्य भगवान् महावीर आदि को नमस्कार करता हूँ। 'एषः' शब्द मात्र रख देने से यहाँ संग्रह वाक्य को नहीं लिया है क्योंकि वह अर्थापत्ति से ही आ जाता है । अर्थात् मैंने पहले बृहत्प्रत्याख्यान का निरूपण किया है सो ही मैं अब संक्षेप प्रत्याख्यान को कहूँगा ऐसा 'एषः' पद से जाना जाता है। जिन-चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आदि में जो वर-श्रेष्ठ हैं ऐसे प्रमत्त गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त मुनि होते हैं । अर्थात् छठे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक मुनि जिनवर हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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