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बृहत्प्रत्याख्यान संस्तरस्तवाधिकारः ]
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संज्ञः आहारादिसंज्ञारहितः । जहसु—जहीहि त्यज । देहं शरीरं । बाह्ययोगविरहितोऽपि, अभ्यन्तरध्यानयोगप्रविष्टः सन् तस्मिन् देशकाले अमूढसंज्ञो यथा भवति तथा शरीरं जहीहि ॥ ८६ ॥
अमूढसंज्ञके शरीरत्यागे सति किं स्यात् ! इत्यतः प्राह
तूण रागदोसे छत्तूणय अट्ठकम्मसंखलियं । जम्मणमरणरहट्टं भेत्तृण भवाहि मुच्चिहसि ॥६॥
हंतूण - हत्वा । रागदोसे- रागद्वेषी अनुरागाप्रीती । छेत्तूण य-छित्त्वा च । अट्ठकम्मसंखलियंअष्टकर्मशृंखलाः । जम्मणमरणरहट्ट – जन्ममरणारहट्ट जातिमृत्युघटीयंत्र । भेत्तूण — भित्त्वा । भवाहिभवेभ्यो भवैर्वा । मुचिहिसि - मोक्ष्यसे मुञ्चसि वा । रागद्वेषौ हत्वा अष्टकर्म शृंखलाश्च छित्वा जन्ममरणारहट्ट च भित्त्वा भवेभ्यो मोक्ष्यसे इत्येतत्स्यादिति ॥ ६०॥
यद्येवं-
सव्वमिदं उवदेसं जिणदिट्ठ सद्दहामि तिविहेण । तसथावर खेमकरं सारं णिव्वाणमग्गस्स ॥ ६१ ॥
हो सके वैसे संन्यास के समय आहार आदि संज्ञाओं से रहित होते हुए तुम शरीर को छोड़ो । भावार्थ - शीत ऋतु में अभ्र - खुले मैदान में जो अवकाश अर्थात् ठहरना, स्थित होकर ध्यान करना है वह अभ्रावकाश है । ग्रीष्म ऋतु में आ - सब तरफ से, तापन - सूर्य के संताप को सहना सो आतापन योग है और वर्षा ऋतु में वृक्षों के नीचे ध्यान करना यह वृक्षमूल योग है । सल्लेखना के समय क्षपक इन बाह्य योगों को नहीं कर सकता है फिर भी अन्तर में अपनी आत्मा के स्वरूप का चिन्तन करते हुए जो ध्यान होता है वह अभ्यन्तर योग है । इस योग का आश्रय लेकर क्षपक आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाओं में मूर्च्छित न होता हुआ शरीर को छोड़े ऐसा आचार्य का उपदेश है ।
संज्ञाओं में मूर्च्छित न होते हुए शरीर का त्याग करने पर क्या होता है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं
गाथार्थ - राग-द्वेष को नष्ट करके, आठ कर्मों की जंजीर को काट कर और जन्ममरण के घटीयन्त्र का भेदन कर तुम सम्पूर्ण भवों से छूट जाओगे ॥१०॥
श्राचारवृत्ति - राग द्वेष को नष्ट कर, आठ कर्मों की बेड़ी काटकर तथा जन्म-मरण रूप जो अरहट - घटिकायन्त्र है उसको रोक करके हे क्षपक ! तुम अनेक भवों से मुक्त हो जाओगे अर्थात् पुनः तुम्हें जन्म नहीं लेना पड़ेगा ।
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अब क्षपक कहता है कि हे गुरुदेव ! यदि ऐसी बात है तो मैं
गाथार्थ -- जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित सम्पूर्ण इस उपदेश का मन-वचन-काय से श्रद्धान करता हूँ । यह निर्वाणमार्ग का सार है और त्रस तथा स्थावर जीवों का क्षेम करनेवाला है ॥ ६१॥
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