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________________ [७९ बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकारः] कथं न गता तृप्तिर्यथा__ 'तिणकट्टेण व अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहिं । ण इमो जीवो सक्को तिप्पेदं कामभोगेहिं ॥५०॥ 'तिणकट्टेण व-तृणकाष्ठरिव । अग्गी-अग्निः । लवणसमुद्दो---लवणसमुद्रः । णदीसहस्सेहिनदीसहस्र श्चतुर्दशभिः सहस्र द्विगुणद्विगुणैर्नदीनां समन्विताभिगंगासिंध्वादिचतुर्दशनदीभिः सागरो न पूर्णः । ण इमो जीवो-नायं जीवः । सक्को-शक्यः । तिप्पेउं-तृप्तुं प्रीणयितुं । कामभोर्गेहि-कामभोगः, ईप्सितसुखागैराहारस्त्रीवस्त्रादिभिः । यथा अग्निः तृणकाष्ठः, लवणसमुद्रश्च नदीसहस्र : प्रीणयितुं न शक्यः तथा जीवोऽपि कामभोगैरिति ॥५०॥ किं परिणाममात्राबन्धो भवति ? भवतीत्याह कंखिदकलुसिदभूदो कामभोगेसु मुच्छिदो संतो। प्रभुंजंतोवि य भोगे परिणामेण णिवज्झइ ॥१॥ णिबंधदि इति वा पाठान्तरम् । कंखिद-कांक्षितः कांक्षास्य संजाता तां करोतीति वा कांक्षितः । क्यों नहीं हुई तृप्ति ? उसी को दिखाते हुए कहते हैं गाथार्थ-तृण और काठ से अग्नि के समान तथा सहस्रों नदियों से लवण-समुद्र के समान इस जीव को काम और भोगों से तृप्त करना शक्य नहीं है ।।८०॥ प्राचारवत्ति-जैसे अग्नि तण और लकड़ियों के समूह से तप्त नहीं होती है अर्थात् बुझ नहीं सकती है प्रत्युत बढ़ती जाती है । जैसे हज़ारों नदियों से लवण समुद्र तृप्त नहीं होता। अर्थात् गंगा-सिंधु की तो परिवार नदियाँ चौदह-चौदह हज़ार हैं, आगे-आगे रोहित रोहितास्या आदि चौदह नदियों में दूनी-दूनी (तथा आधी आधी) परिवार नदियों के समुदाय से सभी की सभी नदियाँ लवण समुद्र में हमेशा प्रवेश करती ही रहती हैं। फिर भी आज तक वह तृप्त नहीं हुआ। उसी प्रकार से इच्छित सुख के साधन भूत आहार, स्त्री, वस्त्र आदि काम भोगों से इस जीव को तृप्त करना, संतुष्ट करना शक्य नहीं है। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय विषयों के उपभोग से तृप्ति की बात तो बहुत दूर है, प्रत्युत इच्छाएँ उत्तरोत्तर वृद्धिंगत ही होती हैं, ऐसा समझें। क्या परिणाममात्र से भी बन्ध हो सकता है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं गाथार्थ--आकांक्षा और कलुषता से सहित हुआ यह जीव काम और भोगों में मूच्छित होता हुआ, भोगों को नहीं भोगता हुआ भी, परिणाममात्र से कर्मों द्वारा बन्ध को प्राप्त होता है ॥१॥ प्राचारवृत्ति-कहीं पर 'णिवज्झेइ' की जगह 'णिवन्धदि' ऐसा भी पाठान्तर है। १.क तण । २. क तण। *८०, ८१ और ८२वीं तीन गाथाएँ फलटन से प्रकाशित प्रति में पहले ही आ चुकी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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