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________________ ६२] दामि, यद् गर्हणीयं तद्गर्हामि, सर्व बाह्याभ्यन्तरं चोपधि आलोचयामीति । कथमालोचयितव्यमिति चेदत आह करता हूँ । जह बालो जंप्पतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणदि । तह श्रालोचेयव्व माया मोसं च मोत्तूण ॥ ५६ ॥ जह—यथा | बालो – बालः पूर्वापरविवेकरहितः । जंपतो - जल्पन् । कयं कार्यं स्वप्रयोजनं । अकज्जं च अकार्यं अप्रयोजनं अकर्तव्यं च । उज्जयं-ऋजु अकुटिलं । भगइ -- भणति । तह तथा । आलोचेयव्वं-आलोचयितव्यं । मायामोसं च - मायां मृषां च अपह्नवासत्यं च । मोतन - मुक्त्वा । यथा कश्चिदबालो जल्पन् कुत्सितानुष्ठानम कुत्सितानुष्ठानं च ऋजु भणति, तथा मायां मृषां च मुक्त्वालोचयितव्यमिति । यस्यालोचना क्रियते स किंगुणविशिष्ट आचार्य इति चेदत आह णाहि दंसणम्हि य तवे चरिते य चउसुवि प्रकंपो । धीरो श्रागमकुलो परस्साई रहस्साणं ॥ ५७ ॥ करता हूँ और समस्त बाह्य अभ्यन्तर उपधि की आलोचना करके अपने से दूर [ मूलाचारे - आलोचना कैसे करना चाहिए ? सो कहते हैं- गाथार्थ - जैसे बालक सरल भाव से बोलता हुआ कार्य और अकार्य सभी को कह देता है उसी प्रकार से मायाभाव और असत्य को छोड़कर आलोचना करना चाहिए ॥ ५६ ॥ आचारवृत्ति - जैसे बालक पूर्वापर विवेक से रहित हो बोलता हुआ अपने प्रयोजनीभूत अर्थात् उचित कार्य को तथा अप्रयोजनीभूत अर्थात् अनुचित कार्य को सरलभाव कह देता है, उसी प्रकार से अपने कुछ दोषों को छिपाने रूप माया और असत्य वचन को छोड़कर आलोचना करना चाहिए । अर्थात् जैसे बालक अपने गलत भी किये गये या अच्छे कार्य को बिना छिपाये कह देता है, वैसे ही साधु सरलभाव से सभी दोषों की आलोचना करे । जिनके पास आलोचना की जाती है वे आचार्य किन गुणों से विशिष्ट होने चाहिए ? ऐसा पूछने पर कहते हैं गाथार्थ - जो ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र इन चारों में भी अविचल हैं, धीर हैं, परिग्रह संज्ञा का स्वरूप उवयरणदंसणेण य तस्सुवजोएण मुच्छिवाए य । लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जायदे सण्णा ॥ २४ ॥ Jain Education International अर्थ -- इत्र, भोजन, उत्तम स्त्री आदि भोगोपभोग के साधनभूत पदार्थों के देखने से अथवा पहले भुक्त पदार्थों का स्मरण करने से और ममत्व परिणामों के होने से तथा लोभकर्म की उदय-उदीरणा होने से परिग्रह संज्ञा होती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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