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________________ ६०] [मूलाचार छज्जीवणिकाय-षट् च ते जीवनिकायाश्च षड्जीवनिकायाः पृथिवीकायिकादयः । महन्वया पंच-महाव्रतानि पंच । पवयणमाउ--प्रवचनमातृकाः पंचसमितय: त्रिगुप्तयश्च । पयत्या पदार्थाः जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षपुण्यपापाणि । तेतीसच्चासणा-त्रयस्त्रिशदासादनाः। भणिया-भणिताः पंचास्तिकायादिविषयत्वात पंचास्तिकायादय एवासादना उक्ता:, तेषां वा ये परिभवास्ता आसादना इति सम्बन्धः कर्तव्यः । कहलाते हैं । वे पाँच हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश । काल में प्रदेशों का प्रचय न होने से वह अस्तिमात्र है, अस्तिकाय नहीं है । पृथ्वीकायिक आदि छह जीवनिकाय हैं । महाव्रत पाँच हैं, पाँच समिति और तीन गुप्तियाँ ये प्रवचन-मातृका नाम से आठ हैं। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप ये नव पदार्थ हैं। इस प्रकार ये तेतीस आसादनाएँ हैं । अर्थात् पाँच अस्तिकाय आदि ये इनके विषयभूत हैं इसलिए इन अस्तिकाय आदि को ही आसादना शब्द से कहा है। अथवा इनका जो परिभव अर्थात् अनादर है वही आसादना है ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए। विशेष-महाव्रतों में समिति गुप्तियों के अति वार आदि का होना आसादना है और निम्नलिखित गाथाएँ फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक हैं। आहाराविसण्णा चत्तारि वि होंति जाण जिगवयणे । सादादिगारवा ते तिणि विणियमा पवजेजो ॥१६॥ अर्थ-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रहसंज्ञा इन चारों संज्ञाओं का स्वरूप जिनागम में कहा गया है। साता आदि तीन गौरव हैं । इनको नियम से छोड़ देना चाहिए । इन्हें गारव भी कहते हैं । यथा सातागारव-मैं यति होकर भी इन्द्रत्वसुख, चक्रवर्तीसुख अथवा तीर्थकर जैसे सुख का उपभोग ले रहा हूँ, ये दीनयति सुखों से रहित हैं इत्यादि रूप से अभिमान करना । रसगारव-मुझे आहार में रसयुक्त पदार्थ सहज ही उपलब्ध हैं ऐसा अभिमान होना। ऋद्धिगारव-मेरे शिष्य आदि बहुत हैं, दूसरे यतियों के पास नहीं है ऐसा अभिमान होना। ये तीन प्रकार के गर्व 'गारव' शब्द से भी कथित हैं। चूंकि ये संज्वलन कषाय के निमित्त से होने से अत्यल्परूप हो सकते हैं। इन बातों का विशेष रूप से घमण्ड रहे जो कि अन्य को तिरस्कृत करनेवाला हो बह गर्व नाम से सूचित किया जाता है ऐसा समझना। ये गौरव भी त्याग करने योग्य हैं। संज्ञा का लक्षणइह जाहि वाहिया वि य जोवा पावंवि वारणं दुक्खं । सेवंता वि य उभये ताओ चत्तारि सपनामओ ॥२०॥ अर्थ-जिनसे संक्लेशित होकर जीव इस लोक में और जिनके विषयों का सेवन से दोनों ही भवों में दारुणदुःख को प्राप्त होते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं । उनके चार भेद हैं। आहार संज्ञा का स्वरूपआहारदसणेण य तस्सुवजोगेण ओम कोठाए। सादिदरुदीरणाए हवदि हुआहारसण्णा हु॥२१॥ अर्थ-आहार को देखने से अथवा उसकी तरफ उपयोग लगाने से और उदर के खाली रहने से तमा असातावेदनीय की उदय और उदीरणा के होने पर जीव के नियम से माहार संज्ञा होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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