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________________ ५८ ] [मूलाचारे परिग्रहाभिलाषान् । गारवे- गोरवाणि ऋद्धिरससातविषयगर्वान् । तिष्णि - त्रीणि । तेतीसाच्चासनाओत्रिभिरधिका त्रिंशत् त्रयस्त्रिंशत् पदार्थैः सह सम्बन्धः । त्रयस्त्रिंशतां पदार्थानां, अच्चासणा - आसादनाः परिभवास्तास्त्रयस्त्रिशदासादनाः, वा तन्निमित्तत्वात् ताच्छब्द्यन्ते । रायद्दोसं च - रागद्वेषौ च, आत्मनीनानात्मनीनवस्तुप्रीत्यप्रीती । गरिहामि गर्ह नाचरामीत्यर्थः । सप्तभयाष्टमदसंज्ञागारवाणि त्रयस्त्रिंशत्पदार्थासादनं च रागद्वेषौ च त्यजामीत्यर्थः । are कानि सप्तभयानि के चाष्टो मदा इति पृष्टे तत आह इहपरलोयत्ताणं अगुत्तिमरणं च वेयणाकम्हिभया । विष्णाणिस्स रियाणा कुलबलतवरूवजाइ मया ॥ ५३ ॥ इहपरलोयं - इह च परश्च इहपरौ तौ च तो लोको चेहपरलोकी । अत्ताणं - अत्राणमपालनं, इहलोकभयं, परलोकभयं, अत्राणभयं । अगुत्ति - अगुप्तिः प्राकाराद्यभावः । मरणं च - मृत्युश्च । वेयणा - वेदना पीडा । अकहिभया - आकस्मिकं घनादिगर्जोद्भवम् । भयशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । इहलोकभयं परलोकभयं, अत्राणभयं, अगुप्तिभयं मरणभयं वेदनाभयं आकस्मिकभयं चेति । विष्णाण - विज्ञानं अक्षरगन्धर्वादिविषयम् । इस्सरिय— ऐश्वर्यं द्रव्यादिसम्पत् । आणा - आज्ञा वचनानुल्लंघनम् । कुलं - शुद्धपैतृकाम्नायः इक्ष्वाक्वाद्युपत्तिर्वा । बलं - शरीराहारादिप्रभवा शक्तिः । तब - तपः कायसन्तापः । रूवं रूपं समचतुरस्र आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये अभिलाषारूप चार संज्ञाएँ हैं । ऋद्धि, रस और साताइनके विषय में गर्व के निमित्त से गौरव के ऋद्धिगौरव, रसगौरव और सातगौरव नामक तीन भेद हो जाते हैं । अर्थात् में ऋद्धिशाली हुँ, मुझे नाना रसों से युक्त आहार सुलभ है या मेरे साता का उदय होने से सर्वत्र सुख सुविधाएँ हैं इत्यादि रूप से जो बड़प्पन का भाव या अहंभाव है वह यहाँ पर गारव शब्द से विवक्षित है । उसी को गौरव भी कहा गया है । तेतीस पदार्थों के परिभव या अनादर को आसादना कहते हैं । अथवा उन तेतीस पदार्थों के निमित्त से जो आसादनाएँ होती हैं वे ही यहाँ तेतीस कही गयी हैं। अपने से सम्बद्ध वस्तु में प्रीति का नाम राग है और अपने से भिन्न वस्तु में अप्रीति का नाम द्वेष है । इस प्रकार से मैं सात भय, आठ मद, चार संज्ञा, तीन गौरव तेतीस पदार्थों की आसादना और रागद्वेष का त्याग करता हूँ। दूसरे शब्दों में, में इन्हें आचरण में नहीं लाऊँगा । अब वे सात भय और आठ मद कौन-कौन हैं ? इसका उत्तर देते हैं गाथार्थ - इहलोक, परलोक, अत्राण, अगुप्ति, मरण, वेदना और आकस्मिक ये सात भय हैं। विज्ञान, ऐश्वर्य, आज्ञा, कुल, बल, तप, रूप और जाति इनके निमित्तक आठ मद हैं ।। ५३ ॥ Jain Education International प्राचारवृत्ति - इहलोक आदि सभी के साथ भय शब्द का प्रयोग करना चाहिए। यथा - इहलोकभय - अर्थात् इस लोक में शत्र ु, विष, कंटक आदि से भयभीत होना । परलोकभय अर्थात् अगले भव में कौन-सी गति मिलेगी ? क्या होगा ? इत्यादि सोचकर भयभीत होना । अत्राणभय अर्थात् मेरा कोई रक्षक नहीं है ऐसा सोचकर डरना । अगुप्तिभय अर्थात् इस ग्राम में परकोटे आदि नहीं है अतः शत्र, आदि से कैसे मेरी रक्षा होगी ? मरणभय अर्थात् मरने से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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