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________________ [मूलाचारे हरिसं-हर्ष लाभादिना आनन्दम् । दीणभावयं-दीनभावं याञ्चादिना करुणाभिलाषदैन्यं च । उस्सुगत्तंउत्सुकत्वं सरागमनसा'न्यचितनं । भयं-भीतिम् । सोयं-शोक इष्टवियोगवशादनशोचनम् । रइं–रतिमभिप्रेतप्राप्तिम् । अरइं—अरति अभिप्रेताऽप्राप्ति। वोसरे-व्युत्सृजामि। रागानुबन्धद्वेषहर्षदीनभावमुत्सुकत्वभयशोकरत्यरति च त्यजामीत्यर्थः । मत्ति परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो। आलंबणं च मे प्रादा अवसेसाई वोसरे ॥४५॥ मत्ति-ममत्वं । परिवज्जामि-परिवर्जामि परिहरेऽहं । णिम्मत्ति--निर्ममत्वमसंगत्वं । उवट्रिदो-उपस्थितः । यदि सर्व भवता त्यज्यते किमालम्बनं भविष्यतीत्यत आह-आलंबणं च-आलम्बनं चाश्रयः । मे-मम । आदा–आत्मा। अवसेसाइं-अवशेषाणि अधिकानि । वोसरे-व्युत्सृजामि । किं बहनोक्तनानन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यरत्नत्रयादिकं मुक्त्वान्यत्सर्वं त्यजामीत्यर्थः । । आत्मा च भवता किमिति कृत्वा न परित्यज्यते इत्यत आह प्रादा ह मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरिते य। प्रादा पच्चक्खाणे प्रादा मे संवरे जोए ॥४६॥ आदा-आत्मा।ह-स्फुटं । मज्झ--मम । णाणे-ज्ञाने। आदा-आत्मा। मे--मम । बसणे याचना आदि से करुणामय अभिलाषारूप दीनता, सराग मन से अन्य के चिन्तनरूप उत्सूकता, भीति, इष्ट वियोग के निमित्त से होनेवाला शोचरूप शोक, इच्छित की प्राप्ति रूप रति, इच्छित की अप्राप्तिरूप अरति-इन सबका मैं त्याग करता हूँ। गाथार्थ-मैं ममत्व को छोड़ता और निर्ममत्व भाव को प्राप्त होता हूँ, आत्मा ही मेरा आलम्बन है और मैं अन्य सभी का त्याग करता हूँ ॥४५॥ प्राचारवृत्ति—मैं ममत्व को छोड़ता हूँ और निःसंगपने को प्राप्त होता हूँ। प्रश्न-आप यदि सभी कुछ छोड़ देंगे तो आपको अवलम्बन किसका है ? उत्तर-मेरी आत्मा का ही मुझे अवलम्बन है इसके अतिरिक्त सभी का मैं त्याग करता हूँ। अर्थात् अधिक कहने से क्या, अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य रूप अनन्तचतुष्टय को और रत्नत्रय निधि को छोड़कर अन्य सभी का मैं त्याग करता हूँ। आप आत्मा का त्याग क्यों नहीं करते हैं ? इस बात को कहते हैं गाथार्थ-निश्चितरूप से मेरा आत्मा ही ज्ञान में है, मेरा आत्मा ही दर्शन में और चारित्र में है, प्रत्याख्यान में है और मेरा आत्मा ही संवर तथा योग में है ॥४६॥ प्राचारवृत्ति--मेरा आत्मा ही स्पष्टरूप से ज्ञान में, तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप दर्शन में १. कन्यत्रचि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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