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मूलसंघ के साधुओं का जैसा आचरण होना चाहिए, उसका वर्णन मूलाचार में वट्टकेर आचार्य ने किया है। मूल नाम प्रधान का है, साधुओं का प्रमुख आचार कैसा होना चाहिए, इसका दिग्दर्शन ग्रन्थकार ने मलाचार में किया है। अथवा मूलसंघ भी होता है। मूलसंघ में दीक्षित साधु का आचार कैसा होना चाहिए, इसका दिग्दर्शन ग्रन्थकार ने मूलाचार में किया है। मूलाचार जैन साधुओं के आचार विषय का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथा प्रामाणिक ग्रन्थ है। यह वर्तमान में दिगम्बर साधुओं का आचारांग सूत्र समझा जाता है। इसकी कितनी ही गाथाएं उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों में उद्धत ही नहीं की हैं अपितु उन्हें अपने अपने ग्रन्थों का प्रकरणानुरूप अंग बना लिया है। दिगम्बर जैन वाङ्मय में मुनियों के आचार का सांगोपांग वर्णन करनेवाला यह प्रथम ग्रन्थ है। इसके बाद मूलाराधना, आचारसार, चारित्रसार, मूलाचारप्रदीप तथा अनगार धर्मामृत आदि जो ग्रन्थ रचे गये हैं उन सबका मूलाधार मूलाचार ही है । यह न केवल चारित्र विषयक ग्रन्थ है अपितु ज्ञान-ध्यान तथा तप में अनुरक्त रहनेवाले साधुओं को ज्ञानवद्धि म सहायक अनेक विषय इसमें प्रतिपाद हैं। इसका पर्याप्ति अधिकार करणानयोग सम्बन्धी अनेक विषयों से परिपूर्ण है।
आचारवृत्ति के कती वसुनन्दी आचार्य ने इसकी संस्कृतटीका में इन सब विषयों को संदृष्टियों द्वारा स्पष्ट किया है । आचारवृत्ति के अनुसार मूलाचार में १२५२ गाथाएँ हैं तथा सम्पूर्ण ग्रन्थ बारह अधिकारों में विभाजित है। इन अधिकारों के वर्णनीय का निदर्शन, टीका की आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने अपने 'आद्य उपोद्घात' में किया है। माताजी ने टीका करने के लिए माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित मूलाचार को आधार माना है। साथ ही श्री पं० जिनदास जी शास्त्रीकृत्र हिन्दी टीका सहित मूलाचार को भी सामने रवखा है। इस टीका में जो गाथाएं परिवर्तित, परिवर्धित या आगे-पीछे हैं उन सब का उल्लेख टिप्पणी में किया है इससे पाठकों को दोनों संस्करणों की विशेषता विदित हो जाती है।
माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित दोनों भागों की प्रतियों का संशोधन दिल्ली से प्राप्त हस्तलिखित प्रति तथा स्याद्वाद संस्कृत महाविद्यालय में सुरक्षित हस्तलिखित प्रति से किया गया है तथा उन्हीं प्रतियों के आधार से पाठभेद लिये गये हैं। माताजी ने मूलाचार की पाण्डुलिपि तैयार कर प्रकाशनार्थ भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली को भेजी। ज्ञानपीठ के अध्यक्ष और निदेशक ने पाण्डलिपि को संशोधित करने के लिए हमारे पास भेजी तथा उसे प्रकाशित करने की सम्मति हम लोगों से चाही । फलतः हम तीनों ने कुण्डलपुर में एकत्रित हो आठ दिन तक टीका का वाचन किया। समुचित साधारण संशोधन तत्काल कर दिये परन्तु कुछ विशेषार्थ के लिए माताजी का ध्यान आकृष्ट करने के लिए पाण्डुलिपि पुनः माताजी के पास भेजी। माताजी ने संकेतित स्थलों पर विचारकर आवश्यक विशेषार्थ बढ़ाकर पाण्डुलिपि पुनः ज्ञानपीठ को भेज दी। हम लोगों ने माताजी के श्रम और वैदुष्य की श्लाघना करते हुए प्रकाशन के लिए सम्मति दे दी। फलतः भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से इसका प्रकाशन हो रहा है। प्रकाशन दो भागों में नियोजित है। यह प्रथम-भाग पाठकों के समक्ष है।
माताजी ने मूलाचार का अन्तःपरीक्षण तथा विषय-निर्देश करते हुए अपने 'आद्य उपोद्घात' में ग्रन्थ कर्त त्व पर भी प्रकाश डाला है तथा यह सम्भावना प्रकट की है कि मूलाचार के कर्ता कुन्दकुन्दाचार्य होना चाहिए और इसी सम्भावना पर उन्होंने अपने वक्तव्य में कुन्दकुन्द
सम्पादकीय /
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