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________________ २. बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकारः प्रत्याख्यान संस्तरस्तवप्रतिपत्तभ्या सहाभेदं कृत्वात्मन: ग्रंथकर्ता प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवनामधेयद्वितीयाधिकारार्थमाह। अथवा षटकाला यतीनां भवन्ति तत्रात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थकालास्त्रयः आराधनायां कथ्यते । शेषा दीक्षाशिक्षागणपोषणकाला आचारे, तत्रायेषु त्रिषु कालेषु यद्युपस्थितं मरणं तत्रैवंभूतं परिणामं विदधेऽहमित्यत आह सव्वदुक्खप्पहीणाणं सिद्धाणं अरहदो णमो। सद्दहे जिणपण्णत्तं पच्चक्खामि य पावयं ॥३७॥ सम्वदुक्खप्पहीणाणं सर्वाणि च तानि दुःखानि च सर्वदुःखानि समस्तद्वन्द्वानि तैः प्रहीणा रहिताः । अथवा सर्वाणि दुःखानि प्रहीणानि येषां ते सर्वदुःखप्रहीणास्तेभ्यः । सिद्धाणं-सिद्धेभ्यः सम्यक्त्वाद्यष्टगुणश्वर्येभ्यः। अरहदो-अर्हद्भ्यश्च नवकेवललब्धिप्राप्तेभ्यश्चाचशब्दोऽनुक्तोऽपि द्रष्टव्यः। णमो-नमो नमोऽस्वित्यर्थः तेभ्यः । सद्दहे-श्रद्दधे रुचि कुर्वे। जिणपण्णत्तं-कर्मारातीन जयन्तीति जिनाः तैः प्रज्ञप्तं कथितं जिनप्रज्ञप्तं जिनकथितं । पच्चक्वामि--प्रत्याख्यामि परिहरे। पावयं-पापकं दुःखनिमित्तम्। सर्वद्वंद्वरहितेभ्यः सिद्धेभ्योऽर्ह प्रत्याख्यान और संस्तरस्तव इन दो विषयों का उनको जाननेवाले मुनियों के साथ अभेद सम्बन्ध दिखाकर ग्रन्थकार प्रत्याख्यान संस्तर-स्तव नामक द्वितीय अधिकार का वर्णन करते हैं । अथवा यतियों के छह काल होते हैं उसमें आत्म संस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल इन तीन कालों का वर्णन 'भगवती आराधना' में कहा गया है। शेष अर्थात् दीक्षाकाल, शिक्षाकाल और गणपोषणकाल इन तीनों का इस आचार-ग्रन्थ-मूलाचार में वर्णन करेंगे। उनमें से पहले के तीन कालों में यदि मरण उपस्थित हो जावे तो मैं इस प्रकार के (निम्न कथित) परिणाम को धारण करता हुँ, इस प्रकार से आचार्य कहते हैं गाथार्थ—सम्पूर्ण दुःखों से मुक्त हुए सिद्धों को और अहंतों को मेरा नमस्कार होवे । मैं जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित (तत्त्व) का श्रद्धान करता हूँ और पाप का त्याग करता हूँ॥३७॥ __प्राचारवृत्ति-सम्पूर्ण दुःखों से अर्थात् समस्त द्वन्द्वों से जो रहित हैं, अथवा जिन्होंने सम्पूर्ण दुःखों को नष्ट कर दिया है ऐसे सम्यक्त्व आदि आठ गुण रूप ऐश्वर्य से विशिष्ट सिद्धों को और नव केवललब्धि को प्राप्त हुए अर्हतों को मेरा नमस्कार होवे । यहाँ गाथा में 'च' शब्द न होते हुए भी उसको समझना चाहिए। सर्वज्ञदेवपूर्वक ही आगम होता है इसीलिए मैं नमस्कार के अनन्तर जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित आगम का श्रद्धान करता हूँ अर्थात् सम्यक्त्वपूर्वक जो आचरण है उसका श्रद्धान करता हूँ और इसी हेतु से दुःखनिमित्तक सम्पूर्ण पापों का त्याग १. क 'जत्रिसं। २. पत्तिभ्यां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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