________________
४४]
[मूलाधारे
कृत्वा भुङ्क्ते न च तत्र काकादिपिडहरण सम्भवति । अथ किमर्थं स्थितिभोजनमनुष्ठीयते चेन्नैष दोषः यावद्धस्तपादौ मम संवहतस्तावदाहारग्रहणं योग्यं नान्यथेति ज्ञापनार्थ। मिथस्तस्य हस्ताभ्यां भोजनं उपविष्टः सन् भाजनेनान्यहस्तेन वा न भुजेऽहमिति प्रतिज्ञार्थं च, अन्यच्च स्वकरतलं शुद्धं भवति अन्तराये सति बहोविसर्जनं च न भवति अन्यथा पात्री सर्वाहारपूर्णा त्यजेत् तत्र च दोषः स्यात् । इन्द्रियसंयमप्राणसंयमप्रतिपालनार्थ च स्थितिभोजनमुक्तमिति ॥ एकभक्तस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह
उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झम्हि ।
एकम्हि दुअ तिए वा मुहत्तकालेयभत्तं तु ॥३५॥ उवयत्थमणे-उदयश्चास्तमनं च उदयास्तमने तयोः सवितुरुदयास्तमनयोः। काले-कालयोः, अथवा उदयास्तमनकालो द्वितीयान्तौ द्रष्टव्यो। णालीतियवज्जियम्हि-नाड्या घटिकायास्त्रिकं नाडीत्रिक तेन नाडीत्रिकेण वजितं नाडीत्रिकजितं तस्मिन घटिकात्रिकवजिते । मज्झम्हि-मध्ये । एक्कम्हि-- एकस्मिन् । दुअ-द्वयोः । तिए वा-त्रिषु वा । मुहुत्तकाले-मुहूर्तकाले। एयभत्तं तु-एकभक्तं तु । उदयकालं नाडीत्रिकप्रमाणं वर्जयित्वा । अस्तमनकालं च नाडीत्रिकप्रमाणं वर्जयित्वा शेषकालमध्ये एकस्मिन् मुहूर्ते द्वयोर्मुहूर्तयोस्त्रिषु वा मुहूर्तेषु यदेतदशनं तदेकभक्तसंज्ञक व्रतमिति पूर्वगाथासूत्रादशनमनुवर्तते तेन सम्बन्ध
प्रश्न-पुनः किसलिए स्थितिभोजन का अनुष्ठान किया जाता है ?
उत्तर—यह दोष नहीं है, क्योंकि जब तक मेरे हाथ पैर चलते हैं तब तक ही आहार ग्रहण करना योग्य है अन्यथा नहीं ऐसा सूचित करने के लिए मुनि खड़े होकर आहार ग्रहण
बैठकर दोनों हाथों से या बर्तन में लेकर के या अन्य के हाथ से मैं भोजन नहीं करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा के लिए भी खड़े होकर आहार करते हैं। और दूसरी बात यह भी है कि अपना पाणिपात्र शुद्ध रहता है तथा अंतराय होनेपर बहुत सा भोजन छोड़ना नहीं पड़ता है अन्यथा थाली में खाते समय अंतराय हो जाने पर पूरी भोजन से भरी हुई थाली को छोड़ना पड़ेगा, इसमें दोष लगेगा। तथा इन्द्रियसंयम और प्राणीसंयम का परिपालन करने के लिए भी स्थितिभोजन मूलगुण कहा गया है ऐसा समझना।
एकभक्त का स्वरूप निरूपण करते हुए कहते हैं
गाथार्थ-उदय और अस्त के काल में से तीन-तीन घड़ी से रहित मध्यकाल के एक, दो अथवा तीन मुहूर्त काल में एकबार भोजन करना यह एकभक्त मूलगुण है ॥३५॥
आचारवृत्ति-सूर्योदय के बाद तीन घड़ी और सूर्यास्त के पहले तीन घड़ी काल को छोड़कर शेषकाल के मध्य में एक मुहूर्त, दो मुहूर्त या तीन मुहूर्त पर्यंत जो आहार ग्रहण है वह एकभक्त नाम का व्रत है। इस प्रकार से पूर्वगाथा सूत्र में 'अशन' शब्द है, उसका यहाँ सम्बन्ध किया गया है। अथवा तीन घड़ी प्रमाण सूर्योदय काल और तीन घड़ी प्रमाण सूर्यास्त काल को छोड़कर मध्यकाल में तीन मुहूर्त तक जो भोजन क्रिया की निष्पत्ति-पूर्ति है वह एकभक्त है।
१क 'डग्रहणं"।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.