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________________ चन्द्रप्रभचरितम् [६] चं० च० में सैद्धान्तिक विवेचन वीरनन्दीने चं० च० के अन्तिम सर्गमें भ० चन्द्रप्रभकी दिव्य देशनाका प्रसङ्ग पाकर जिन सैद्धान्तिक विषयोंका विवेचन किया है, उनमें मुख्य हैं-सात तत्त्व, नौ पदार्थ, छ: द्रव्य, चार गतियाँ, आठ कर्म, बारह तप, चार ध्यान, रत्नत्रय और चौंतीस अतिशय । इस विवेचनसे अभिव्यक्त होता है कि वीरनन्दी सिद्धान्तविद् भी रहे । इस विवेचन का आधार कुन्दकुन्द साहित्य, तत्वार्थसूत्र और उसके व्याख्याग्रन्थ आदि हैं, न कि उ० पु० । [७] चं० च० में तत्त्वोपप्लव आदि इतर दर्शनोंकी आलोचना ___ चं० च० (२, ४३-११०) में तत्त्वोपप्लव दर्शनको विस्तृत आलोचनाकी गयी है, और इसीके प्रसङ्गसे चार्वाक, सांख्य, न्याय-वैशेषिक, बौद्ध और मीमांसा दर्शनोंकी भी। तत्त्वोपप्लव दर्शनकी मान्यता है कि विचार करनेपर लोक प्रसिद्ध पृथिवी आदि तत्त्व भी जब सिद्ध नहीं किये जा सकते तब (जैन दर्शन मान्य ) अन्य तत्त्वोंकी तो बात ही क्या है; (क्योंकि वे सभी वाधित है )-'पृथिव्यादीनि तत्त्वानि लोके प्रसिद्धानि, तान्यपि विचार्यमाणानि न व्यवतिष्ठन्ते किं पुनरन्यानि ?-तत्त्वोपप्लवसिंह पृ० १ । चार्वाक दर्शन देहको ही आत्मा मानता है, जो उसीके साथ उत्पन्न होता है और उसीके साथ समाप्त भी हो जाता है-जन्मान्तर ग्रहण नहीं करता । सांख्यदर्शन आत्माके अस्तित्वको स्वीकार करता है, पर वह उसे कूटस्थनित्य और अकर्ता बतलाता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन आत्माको जड़ मानता है-आत्मा स्वयं ज्ञानवान् नहीं है, ज्ञानके समवायसे ज्ञानवान् है। मीमांसा दर्शनको मोक्षके विषय में विप्रतिपत्ति है (चं० च० २, ९० )। चं० च० की सं० टी० से इसके दो अर्थ प्रतिफलित होते हैं-१. मीमांसा दर्शनके आचार्योंको मोक्षके विषयमें विवाद है और २. मोक्ष नहीं है । दोनों अर्थ सङ्गत है। १. महर्षि जैमिनीयने अपने सूत्रोंमें मोक्षकी चर्चा नहीं की। इनके उत्तरवर्ती भट्ट और प्रभाकरके मोक्ष के मन्तव्योंमें वैषम्य है। २. नित्यकर्मोंका अनुष्ठान ही मोक्ष है-नियोगसिद्धिरेव मोक्ष:-प्रकरणपञ्जिका पृ० १८८-१९० । जैमिनीय सम्मत मोक्ष का लक्षण लिखते हुए सोमदेव सूरिने कहा है-कोयला और कज्जलकी भाँति स्वभावतः मलिन चित्तवृत्ति कभी शुद्ध नहीं हो सकतोयशस्ति० उ० पृ० २६९ । बौद्ध दर्शन ज्ञानकी धाराको ही आत्मा मानता है। इस तरह उक्त दर्शनोंकी मान्यताओंकी वीरनन्दीने समालोचना की है। इसकी विशेष जानकारीके लिए पाठक प्रस्तुत ग्रन्थका हिन्दी र 'तत्त्वसंसिद्धिः' देख लें। इस प्रसङ्गको आद्योपान्त पढ़कर वीरनन्दीके दार्शनिक वैदुष्यका अनुमान लगाया जा सकता है। [८] चं० च० की जैन व जैनेतर ग्रन्थोंसे तुलना (अ) जैन ग्रन्थ [१] आचार्य कुन्दकुन्द ( ई० की पहली शती ) और वीरनन्दी चं० च०-१८,६९,१८,६८,१८,६; पञ्चास्तिकाय-८५ १८, ७८-७९. नियमसार-३४,१६,२०-२४. [ २ ] आचार्य उमास्वामी ( वि० १-३ शती ) और वीरनन्दी चं० च०-१८,२,१८,७-८ तत्त्वार्थसूत्र-१,४; ३,१ १. इसी तरहसे चं० च० के अन्तिम सर्गका लगभग आधा भाग उमास्वामीके तत्त्वार्थसूत्रके आधारपर बनाया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
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