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विषय
१८. कल्याणकोंको तिथियाँ
१९. चन्द्रप्रभके जन्माभिषेक के समय
२०. चन्द्रप्रभके विवाह विषयक श्लोक
२१. चन्द्रप्रभकी पत्नियाँ
२२. चन्द्रप्रभके वैराग्यका कारण
चन्द्रप्रभचरितम्
चं० च०
उ० पु०
केवल दो (जन्म और मोक्ष) की पाँचोंकी
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स्पष्ट
अनेक
देव
सकल
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आनन्द नाटक
अस्पष्ट
२३. चन्द्रप्रभका दीक्षावन
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२४. समवसरण में चन्द्रप्रभ की स्तुति २५. चन्द्रप्रभके गणधरादिकोंकी संख्या में पहले उपाध्याय फिर अवधिज्ञानी पहले अवधिज्ञानी फिर उपाध्याय इस वैषम्यपर विचार - ( १ ) पुत्र न होनेपर राजा श्रीषेणका चिन्तित होना उ० पु० में वर्णित है । ठीक ऐसे ही प्रसंग में रघुवंश (१, ३३-३४) में दिलीपका, रघुवंश (१०, २-४ ) में दशरथका और धर्मशर्माभ्युदय ( २,६९-७४ ) में महासेनका चिन्तातुर होना लिखा है । किन्तु चं० च० (३,३०-३५ ) में श्रीकान्ताका चिन्तामग्न होना चर्चित है । इसका आधार उ० पु० के स्थान में गुणभद्रकी दूसरी कृति 'जिनदत्तचरितम्' है, जिसमें पुत्रके न होनेसे जीवंजसाकी चिन्ताका वर्णन है । अतएव प्रथम वैषम्यके आधारपर यह सिद्ध नहीं होता कि उ० पु० चं० च० की कथावस्तुका आधार नहीं है ।
(२) उ० पु० में श्रीषेण पुरोहितसे पुत्र प्राप्तिका उपाय पूछते हैं, पर चं० च० में वे चारण मुनि अनन्तके दर्शन करते हैं, जिससे वे चिन्तासे मुक्त हो जाते हैं । सूक्ष्म विचार करनेपर ज्ञात होता है वीरनन्दो - ने जैन संस्कृतिको अनुकूलताको ध्यान में रखकर यह परिवर्तन किया ।
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दर्पण में मुखकी विकृति सर्वर्तुक
ऐशानेन्द्र के द्वारा
( ७ ) उ० पु० के अनुसार अजितंजयकी राजधानीका नाम अयोध्या और चं० च० के अनुसार कोशला है । कोषोंके अनुसार दोनोंका अर्थ एक ही है, अतः कोई विरोध नहीं है ।
( ९-१० ) चं० चं० में अजितसेनका अपहरण चण्डरुचि असुर करता है, और बादमें परुषाटवी के निकट हिरण्य देवसे भेंट होती है- यह उ० पु० में चर्चित नहीं है । इन घटनाओंका स्रोत अन्यत्र न मिले तो यह मानना होगा कि वीरनन्दीने गुणभद्रके जिनदत्तचरितम् से सहायता ली है । वह इस प्रकार -
दधिपुर के उद्यान में जिनदत्तका उसके स्वामी सेठ समुद्रदत्तसे परिचय हो जाता है। जिनदत्तके वृक्षायुर्वेद ज्ञानका अपने उद्यानमें चमत्कार देखकर समुद्रदत्त उससे प्रसन्न हो जाता है । फलतः वह वसन्तोत्सव - में जिनदत्तका खूब सम्मान करता है और फिर उसे अपने साथ व्यापारके निमित्तसे सिंहलद्वीप में लिवा ले जाता है । सिंहलद्वीप राजा मेघवाहनकी पुत्री श्रीमती के शयनागारकी रक्षा के लिए जो पहरेदार नियुक्त होता रहा वह रात्रि में मारा जाता था । इससे मेघवाहन हैरान था । जिनदत्तने प्रयत्न करके उस भयंकर सर्पका पता लगा कर पिटारीमें बन्द कर दिया, जो प्रतिदिन पहरेदारके प्राणोंका अपहरण करता रहा । इससे प्रसन्न होकर मेघवाहनने अपनी कन्या श्रीमतीका जिनदत्तके साथ विवाह कर दिया । सिंहलद्वीपसे लौटते समय जिनदत्त की पत्नोको देखकर सेठ समुद्रदत्तकी दृष्टि दूषित हो जाती है, फलतः वह जिनदत्तको समुद्र में गिराकर अपने जलयानको द्रुतगतिसे आगे बढ़ा ले जाता है । जिनदत्त एक लकड़ीका सहारा लेकर
१. अशोकस्तबकेनेव यौवनेन ममामुना । रागिणा केवलं किन्नु न यत्र फलसंभवः ॥ वारिधेरिव लावण्यं विरसं मम सर्वथा । न यत्रापत्यपद्मानि तेन कान्तजलेन किम् || नाममात्रेण सा स्त्रीति गुणशून्येन कीर्त्यते । पुत्रोत्पत्त्या न या पूता यथा शक्रवधूटिका || प्रसादोऽपि न मे भर्तुः शोभायै सूनुना विना । शब्दानुशासनेनैव विद्वत्ताया विजृम्भितम् ।। साहं मोहतमश्छन्ना निशेवोद्वेगदायिनी । दीयते यदि नो पुत्रप्रदीपः कुलवेश्मनि ॥ चिन्तयन्तीति सा बाला कपोलन्यस्तहस्तका । पातयामास सभ्यानां नेत्रभृङ्गान् मुखाम्बुजे ॥ - जिनदत्तच० १,६१-६६ । २. 'साकेत कोशलायोध्या' अभिधानचि० ४,४१ ।
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