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चन्द्रप्रभचरितम्
मिति । संवत् १६४३ वर्षे एकादशी तिथी भौमवासार तुलवादशे बंगवा डिपत्तने जेन राज्यसुराज्य शान्तिश्वरचैत्यालये श्रीमूलसंघे सरस्वतीगछे बलात्कारगणे श्रीकुंकुंदाचार्यान्वये महामुनीश्वर श्रीमहेन्द्रकी र्ति देवरु - श्रीचिमहेन्द्र कीर्तिदेवरुगुरुणां पादपद्माराधकभट्टारकश्रीभुवनकीर्ति तछीस्य ब्रह्मज्ञानसागरस्वहास्तन लिखितं स्वपरपठनार्थं कर्मक्षयार्थं ॥ || शुभं भवतु || कल्याणमस्तु || मंगल महा श्री श्री श्री ॥ श्री ॥ ॥ श्री ॥ ॥ श्री ॥ छ ॥। ९ ॥ ॥ ९ ॥ उक्त तीनों प्रतियोंकी प्राप्ति पं० माणिकचन्द्रजी चवरे कारंजाकी कृपासे हुई ।
मू० . क — यह प्रति नयामन्दिर, धर्मपुरा, दिल्लीकी है । इसका नम्बर ३८ (क) है । यह १२ × ६३ इञ्च लम्बे-चौड़े ११२ पत्रों ( २२४ पृष्ठों ) में समाप्त हुई है । प्रति पृष्ठ ७-७ पंक्तियाँ हैं, कहींकहीं ८-८ भी । प्रतिपंक्ति अक्षर संख्या कहीं ४५ तो कहीं ५२ है । लिपि सुन्दर एवं सुवाच्य है, पर अक्षर सर्वत्र एक से नहीं हैं - १० वें सर्ग तक बड़े-बड़े हैं, और आगे (११-१८) छोटे-छोटे, यद्यपि लेखक एक ही है । कहीं-कहीं टिप्पण भी हैं । लेखन काल सं० १८९९ है । आदिभाग - ओं नमो वीतरागाय — श्रियं क्रियाद्यस्य'''''इत्यादि । पुष्पिका - इति वीरनंदिकृतावृदयांके चन्द्रप्रभे विरचते महाकाव्ये प्रथमसर्गः | १| अन्तिम भाग - पूर्णं संवत् १८९९ भाद्रपद शुक्ल ४ गुरुवासरे अस्मिन् ग्रन्थे श्लोकानि द्विसहस्रद्विशेतविंशतिप्रमाणानि सर्गाः अष्टादश इदं महाकाव्यं लिपीकृतं श्रावक अगरवालवखतावरसिंह स्वपठनार्थं लिखी दील्लो नगर्यां लाला गीरधारी लालजी पंडत श्रावक तिनोंसे इदं महाकाव्यं मया अधीतं । शुभं भवतु कल्याणमस्तु ।
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मू० ५. ख - यह प्रति नया मन्दिर, धर्मपुरा, दिल्लीकी है। इसका नम्बर अ ३८ (ख) है । यह १२ × ६ इञ्च लम्बे-चौड़े १४४ पत्रों ( २२८ पृष्ठों) में समाप्त हुई है । प्रति पृष्ठ पंक्तिसंख्या १० है, और प्रति पंक्ति अक्षर संख्या ३० । यत्र-तत्र टिप्पण भी हैं। आदि भाग- ओं नमो वीतरागाय । श्रियं क्रियाद्यस्य इत्यादि । पुष्पिका - इति वीरर्नादिकृतावृदयांके चन्द्रप्रभविरचिते महाकाव्ये प्रथमः सर्गः ॥१॥ अन्तिमभाग - संवत् १८७२ कार्तिक कृष्णसप्तम्यां बुधवासरे अस्मिन् श्लोकानि द्विसहस्रद्विशेतविंशतिप्रमाणानि । सर्गाः अष्टादेर्श । इदं महाकाव्यं गिरधारीलालश्रावकपठनार्थं लिपीकृतं गोपालविप्रेण मेरठनगर्यां ।
मू० ६. ग - यह प्रति भी नया मन्दिर, धर्मपुरा, दिल्लीकी है। इसका नं० अ ३८ (ग) है । यह १०३४५ इञ्च लम्बे-चौड़े १६२ पत्रों (३२४ पृष्ठों) में समाप्त हुई है । प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या ८ और प्रति पंक्ति अक्षरसंख्या २९ है । अक्षर सघन और सुवाच्य हैं । यत्र-तत्र टिप्पण भी हैं । लेखन कालका उल्लेख नहीं है | आदि भाग - ॥ ६० ॥ ओं नमो वीतरागाय ॥ श्रियं क्रियाद्यस्य इत्यादि । पुष्पिका - इति वीरनंदिकृतावृदयांके चन्द्रप्रभविरचिते महाकाव्ये प्रथमः सर्गः ॥ १॥ अन्तिम भाग - ग्रंथप्रमाणं २२२० सर्गाः अठारह भट्टारक श्री देवेन्द्रकी र्तिना दत्तं विबुधाय रूपशिने पठनार्थं पावल्यां मध्ये ।
मू० ७. घ - यह प्रति पञ्चायती मन्दिर, मसजिद खजूर, दिल्लीकी है। इसका नं० आ ७ है । यह ११ × ५ इञ्च लम्बे-चौड़े ११० पत्रों ( २१९ पृष्ठों) में समाप्त हुई है । प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या १० और प्रति पंक्ति अक्षरसंख्या ३३ पर कहीं कहीं-कहीं ३६ भी है । प्रथम पत्र एक ही ओर लिखा गया है और अन्तिम पत्र में ४ पंक्तियाँ छूटी हुई हैं। अक्षर साधारण हैं । टिप्पणोंकी मात्रा अधिक नहीं है । आदि भागओं नमो वीतरागाय ॥ श्रियं क्रियाद्यस्य इत्यादि । पुष्पिका - इति वीरनंदिकृतावृदयांके चन्द्रप्रभविरचिते महाकाव्ये प्रथमः सर्गः ॥ १ अन्तिमभाग - संवत् १८७५ वैसाषकृष्ण तृतीयायां वृहस्पतवासरे लिखितमिदं पुस्तकं दिल्ली मध्ये श्रीभट्टारक श्री ललितकीर्तिजि तरिष्यपण्डितरत्नचंदपठनार्थं । शुभमस्तु लेखक पाठकयोः । श्री देहली की उक्त चारों प्रतियोंके पाठ प्रायः एक-से हैं, अतः इनकी प्रतिलिपि किसी एक ही आदर्श प्रतिसे की गयी प्रतीत होती है । इन चारों प्रतियोंमें अशुद्धियोंकी बहुलता है। ये चारों प्रतियां श्री पन्नालालजी अग्रवाल, देहली के सौजन्यसे प्राप्त हुईं।
म - मूलग्रन्थ के सम्पादन में उक्त हस्तलिखित प्रतियों के साथ निर्णयसागरीय मुद्रित प्रति ( चतुर्थ संस्करण, सन् १९२६ ) का भी उपयोग, पाठान्तर लेने की दृष्टिसे किया गया है।
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