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________________ प्रस्तावना ८१ वस्तुबोधमें कारण नहीं होता है, प्रत्युत विपरीत ही बोध कराता है, वहाँ उसे प्रमाण कैसे माना जासकता है । ... भाट्टोंने अनधिगत (अज्ञात) और तथाभूत (यथार्थ) अर्थका निश्चय करने वाले ज्ञानको प्रमाण माना है। किन्तु यह लक्षण अव्याप्ति दोषसे दूषित है, क्योंकि उन्होंने स्वयं धारावाहिक ज्ञानको प्रमाण माना है। और धारावाहिक ज्ञानमें अनधिगत अर्थनिश्चायकत्व नहीं है, प्रत्युत गृहीतग्राहित्व है। मीमांसकोंने प्रमाणका एक और भी विस्तृत, विशद एवं व्यापक लक्षण बतलाया है। उन्होंने कहा है कि जो अपूर्व अर्थको जाननेवाला हो, निश्चित हो, बाधाओंसे रहित हो, निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न हआ हो और लोकसम्मत हो, वह प्रमाण कहलाता है। उक्त प्रमाण लक्षणमें यद्यपि आपत्तिजनक कोई बात प्रतीत नहीं होती है, फिर भी अन्य दार्शनिकोंने इस लक्षणकी आलोचना की है। यथार्थमें मीमांसकोंने ज्ञानको जो परोक्ष माना है, वही सबसे बड़ी आपत्ति की बात है। उनकी मान्यता है कि ज्ञानका प्रत्यक्ष नहीं होता है, किंतु अर्थका ज्ञान हो जानेपर अनुमानसे बुद्धिका ज्ञान किया जाता है । तथा अर्थापत्ति प्रमाणसे भी ज्ञानको जाना जाता है। अर्थात् अर्थमें ज्ञातताकी अन्यथानुपपत्तिसे जनित अर्थापत्तिसे ज्ञान गृहीत होता है । मीमांसकोंकी उक्त मान्यता युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि परोक्ष होनेके कारण जो ज्ञान स्वयंको नहीं जानता है वह पदार्थको कैसे जान सकता है, और प्रमाण कैसे होसकता है । अतः मीमांसकोंका प्रमाणरूप ज्ञानको परोक्ष मानना तर्कसंगत नहीं है। जैनदर्शनमें प्रमाणका स्वरूप ___ आचार्य गृद्धपिच्छका तत्त्वार्थसूत्र जैनदर्शनका प्रमुख सूत्रग्रन्थ है। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्रमें सम्यग्ज्ञानके भेदोंको बतलाकर 'तत्प्रमाणे' सूत्र द्वारा सम्यग्ज्ञानमें प्रमाणताका उल्लेख किया । है। तथा 'प्रमाणनयैरधिगमः' इस सूत्र द्वारा प्रमाण और नयको जीवादि तत्त्वोंके अधिगमका १. अनधिगततथाभूतार्थनिश्चायक प्रमाणम् । शास्त्रदी० पृ० १२३ २. तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ।। उद्धृत, प्रमाणवातिकालंकार पृ० २१ ३. ज्ञाते त्वनुमानादवगच्छति बुद्धिम् । शाबरभा० ११२ ४. ज्ञाततान्यथानुपत्तिप्रसूतयाऽर्थापत्त्या ज्ञानं गृह्यते । तर्कभाषा पृ० ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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