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प्रस्तावना और सर्वज्ञ ये दोनों शब्द विभिन्न दृष्टिकोणोंसे एक ही अर्थके प्रतिपादक हैं। क्योंकि उन्होंने यह भी तो बतलाया है कि जो सबको नहीं जानता वह एकको नहीं जान सकता और जो एकको नहीं जानता वह सबको नहीं जान सकता । तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ शब्दमें सब पदार्थ मुख्य हो जाते हैं और आत्मा गौण हो जाता है। तथा आत्मज्ञ शब्दमें आत्मा मुख्य हो जाता है और शेष सब पदार्थ गौण हो जाते हैं। निश्चयनयसे आत्मा आत्मज्ञ है ओर व्यवहारनयसे सर्वज्ञ है। आत्मज्ञतामेंसे सर्वज्ञता फलित होती है। क्योंकि मोक्षार्थी आत्मज्ञताके लिए प्रयत्न करता है, सर्वज्ञताके लिए नहीं । अध्यात्मशास्त्रमें आत्मज्ञानके ऊपर ही विशेष बल दिया गया है, और इसीलिए आत्मज्ञ होना मनुष्यका आध्यात्मिक और नैतिक कर्तव्य है। जो आत्मज्ञ है वह सर्वज्ञ तो है ही। इस प्रकार आत्मज्ञ और सर्वज्ञमें कोई विरोध नहीं है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्दने स्वकी अपेक्षासे आत्मज्ञ कहा है और परकी अपेक्षासे सर्वज्ञ कहा है। अर्थात् नयभेदसे केवलीको आत्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों कहा है। जैनदर्शन और सर्वज्ञसिद्धि __सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्रने आगममान्य सर्वज्ञताको तर्ककी कसौटीपर कसकर दर्शनशास्त्रमें सर्वज्ञकी चर्चाका अवतरण किया है। उन्होंने बतलाया है कि आप्त वही हो सकता है जो निर्दोष और सर्वज्ञ हो तथा जिसके वचन युक्ति और आगमसे अविरुद्ध हों। आचार्य समन्तभद्रने बतलाया है कि सूक्ष्म (परमाणु आदि ) अन्तरित ( राम, रावण आदि) और दूरवर्ती ( सुमेरु आदि ) पदार्थ किसी पुरुषके प्रत्यक्ष अवश्य हैं। क्योंकि वे पदार्थ हमारे अनुमेय होते हैं। जो पदार्थ अनुमेय होता है वह किसीको प्रत्यक्ष भी होता है । जैसे हम पर्वतमें अग्निको अनुमानसे जानते हैं, किन्तु पर्वतपर स्थित पुरुष उसे प्रत्यक्षसे जानता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जो पदार्थ किसीके अनुमानके विषय होते हैं वे किसीके प्रत्यक्षके विषय भी होते हैं । यतः हम लोग सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंको अनुमानसे जानते हैं अतः उनको प्रत्यक्षसे जानने वाला भी कोई अवश्य होना चाहिए। और जो पुरुष उनको प्रत्यक्षसे जानता है वही सर्वज्ञ है। आचार्य समन्तभद्रने सर्वज्ञकी सिद्धिमें ऊपर जो यक्ति दी है वह बड़े महत्त्व की है। उन्होंने किसी आत्मामें सम्पूर्ण दोषों और आरवणोंकी हानि युक्तिपूर्वक सिद्ध करके यह भी बतलाया है कि अर्हन्तके वचन युक्ति और शास्त्रसे अविरुद्ध हैं, क्योंकि उनके द्वारा अभिमत तत्त्वोंमें किसी प्रमाणसे कोई बाधा नहीं आती है।
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