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________________ ७० आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका दर्शनमें शरीरके अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है और प्रत्यक्षके अतिरिक्त अन्य कोई प्रमाण नहीं है। अत: चार्वाकमतमें सर्वज्ञके सद्भाव या असद्भावका कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। किन्तु मीमांसादर्शन आत्माको स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। अतः मीमांसकमतमें सर्वज्ञके होने या न होनेका प्रश्न उपस्थित होता है। मीमांसादर्शन और सर्वज्ञता शबर, कुमारिल आदि मीमांसकोंका कहना है कि धर्म जैसी अतीन्द्रिय वस्तुको हम लोग प्रत्यक्षसे नहीं जान सकते हैं, धर्ममें तो वेद ही प्रमाण है। उन्होंने पुरुषमें राग, द्वेष आदि दोषोंके पाये जानेके कारण अतीन्द्रियार्थ-प्रतिपादक वेदको पुरुषकृत न मानकर अपौरुषेय माना है । ऐसा प्रतीत होता है कि कुमारिलको सर्वज्ञत्वके निषेधसे कोई प्रयोजन नहीं है, किन्तु धर्मज्ञत्वका निषेध करना ही उनका मुख्य प्रयोजन है। उनका कहना है कि यदि कोई पुरुष संसारके समस्त पदार्थोंको जानता है तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है किन्तु धर्मका ज्ञान केवल वेदसे ही होता है, प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे नहीं। ____ मीमांसाकोंने वेद प्रतिपादित अर्थको धर्म बतलाकर कहा है कि धर्म जैसे अतिसूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोंका ज्ञान वेद द्वारा ही संभव है। इन पदार्थों को पुरुष प्रत्यक्षसे नहीं जान सकता है। शबरस्वामीने शाबरभाष्यमें लिखा है कि वेद भूत, वर्तमान, भविष्यत्, सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों का ज्ञान करानेमें समर्थ है। रागदि दोषोंसे दुषित होनेके कारण पुरुषमें ज्ञान और वीतरागताकी पूर्णता संभव नहीं है। यही कारण है कि वह अतीन्द्रियदर्शी नहीं हो सकता है । इसप्रकार मीमांसकोंने पुरुषमें धर्मज्ञत्वका निषेध करके सर्वज्ञत्वका भी निषेध १. धर्भे चोदनव प्रमाणम् । २. धर्मज्ञत्वनिषेधश्च केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते ।। तत्त्वसं० का० ३१२८ (कुमारिल के नाम से उद्धृत) ३. चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः । __मी० सू० ११२ ४. चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवंजातीयकमर्थ... मवगमयितुमलम् । शाबरभाष्य १।१।२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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