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________________ प्रस्तावना ६७ जहाँ उनकी प्राप्ति बुद्धिके व्यापार पूर्वक होती है वहाँ उनकी प्राप्ति पुरुषार्थसे मानना चाहिए। नवम परिच्छेद इस परिच्छेदमें ९२से९५ तक चार कारिकाएँ हैं। इसमें पुण्य और पापके बन्धके विषयमें विचार किया गया है । ९२वीं कारिकामें कहा गया है कि यदि परको दुःख देनेसे पापका बन्ध और सुख देनेसे पुण्यका बन्ध माना जाय तो अचेतन पदार्थ और कषाय रहित जीवभी परके सुख-दुःखमें निमित्त होनेसे बन्धको प्राप्त होंगे। ९३वीं कारिका द्वारा यह बतलाया गया है कि यदि अपनेको दुःख देनेसे पुण्यका बन्ध और सुख देनेसे पापका बन्ध माना जाय तो वीतराग तथा विद्वान् मुनि भी अपने सुख-दुःखमें निमित्त होनेसे बन्धको प्राप्त होगे। ९४वीं कारिकामें कहा गया है कि विरोध आनेके कारण उभयैकान्त मानना ठीक नहीं है। तथा अवाच्यतैकान्तमें अवाच्य शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता है । ९५वीं कारिका द्वारा पुण्यबन्ध और पापबन्धके कारणोंका समन्वय करते हुए कहा गया है कि यदि स्व तथा परमें होने वाला सुख और दुःख विशुद्धि तथा संक्लेशका अंग है, तो वह क्रमशः पुण्यबन्ध तथा पापबन्धका कारण होता है । और यदि वह विशुद्धि और संक्लेश दोनोंमेंसे किसीका भी अंग नहीं है तो वह बन्धका कारण नहीं होता है । दशम परिच्छेद इस परिक्छेदमें ९६से ११४ तक २० कारिकाएँ हैं। ९६वीं कारिकामें बन्ध और मोक्षके कारणके विषयमें विचार किया गया है। यदि अज्ञानसे बन्धका होना अवश्यंभावी माना जाय तो ज्ञेयोंकी अनन्ताके कारण कोई भी केवली नहीं हो सकेगा। इसी प्रकार यदि अल्प ज्ञानसे मोक्ष माना जाय तो बहुत अज्ञानके कारण बन्ध होता ही रहेगा और मोक्ष कभी नहीं हो सकेगा। ९७वीं कारिका द्वारा उभयकान्तमें विरोध तथा अवाच्यतेकान्तमें अवाच्य शब्दके द्वारा भी उसका कथन न हो सकनेका दोष दिया गया है। ९८वीं कारिकामें स्याद्वादन्यायके अनुसार बन्ध और मोक्षकी व्यवस्था बतलाते हुए कहा गया है कि मोहसहित अज्ञानसे बन्ध होता है मोहरहित अज्ञानसे नहीं। इसी प्रकार मोहरहित अल्प ज्ञानसे मोक्ष संभव है, किन्तु मोहसहित ज्ञानसे मोक्ष नहीं होता है। ९९वीं कारिकामें बतलाया गया है कि प्राणियोंके नाना प्रकारके इच्छादिरूप कार्योंकी उत्पत्ति उनके कर्मबन्धके अनुसार होती है। और वह कर्म भी उनके राग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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