SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका सर्वाङ्गीण अभ्यास किया था। इसके साथ ही जैन दार्शनिक तथा आगमिक साहित्य भी उन्हें विपुलमात्रामें प्राप्त था। अत: अपने समयमें उपलब्ध जैनवाड्मय तथा जैनेतर वाङ्मयका सांगोपांग अध्ययन और मनन करके आचार्य विद्यानन्दने यथार्थमें अपना नाम सार्थक किया था। यही कारण है कि उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में समस्त दर्शनोंका किसी न किसी रूपमें उल्लेख मिलता है । आचार्य विद्यानन्दने अपने पूर्ववर्ती अनेक ग्रन्थकारोंके नामोल्लेख पूर्वक और कहीं कहीं विना नामोल्लेखके उनके ग्रन्थोंसे अपने ग्रन्थोंमें अनेक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। तथा पूर्वपक्षके रूप में अन्य दार्शनिकोंके सिद्धान्तोंको प्रस्तुत करके प्राञ्जल भाषामें उनका निरसन किया है। उनके ग्रन्थोंका प्रायः बहुभाग बौद्ध दर्शनके मन्तव्योंकी विशद आलोचनाओंसे भरा हुआ है। अकलंकदेवके तो आचार्य विद्यानन्द प्रमुख टीकाकार हैं। अकलंकदेवकी अष्टशती इतनी गहन और गूढ है कि यदि आचार्य विद्यानन्द इस पर अष्टसहस्री न बनाते तो इसका रहस्य इसीमें छिपा रह जाता। इसीलिए आचार्य वादिराजने अपने न्यायविनिश्चय विवरणमें विद्यानन्दका स्मरण करते हुए लिखा है कि यदि गुणचन्द्रमुनि, अनवद्यचरण विद्यानन्द और सज्जन अनन्तवीर्य ये तीनों विद्वान् अकलंक देवके गंभीर शासनके तात्पर्यकी व्याख्या न करते तो कौन उसे समझने में समर्थ था। इसी प्रकार पार्श्वनाथ चरितमें उन्होंने विद्यानन्दके तत्त्वार्थालंकार और देवागमालंकारकी प्रशंसा करते हुए लिखा है-आश्चर्य है कि विद्यानन्दके इन दीप्तिमान् अलंकारोंको सुनने वालोंके भी अंगोंमें दीप्ति ( कान्ति ) आ जाती है। उन्हें धारण करने वालोंकी तो बात ही क्या है। आचार्य प्रभाचन्द्रने भी प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रथम परिच्छेदके अन्तमें 'विद्यानन्दसमन्तभद्रगुणतो नित्यं मनोनन्दनम्' इस श्लोकांशमें श्लिष्टरूपसे विद्यानन्दका नामोल्लेख किया है। पत्रपरीक्षाकी प्रशस्तिमें एक श्लोक निम्न प्रकार है जीयान्निरस्तनिःशेषसर्वथैकान्तशासनम् । सदा श्रीवर्धमानस्य विद्यानन्दस्य शासनम् ।। १. देवस्य शासनमतीवगभीरमेतत्तात्पर्यतः क इह बोद्धमतीवदक्षः । विद्वान्न चेद् सद्गुणचन्द्रमुनिर्न विद्यानन्दोऽनवद्यचरणः सदनन्तवीर्यः ।। २. ऋजुसूत्रं स्फुरद्रत्नं विद्यानन्दस्य विस्मयः । शृण्वतामप्यलङ्कारं दीप्तिरंगेषु रंगति ॥ -पार्श्वना० चरि० श्लो० २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy