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________________ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद- १० अथवा 'स्याद्वादनय' शब्दका सम्बन्ध 'तत्त्वज्ञान' शब्दके साथ किया जा सकता है । अर्थात् 'तत्त्वज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम्' ऐसा सम्बन्ध करके तत्त्वज्ञान में सप्तभंगीकी प्रक्रियाको लगाया जा सकता है । तत्त्वज्ञानमें कई धर्मों की अपेक्षासे सप्तभंगीका कथन करनेमें कोई विरोध नहीं है । तत्त्वज्ञान सम्पूर्ण पदार्थोंको विषय करनेके कारण कथंचित् अक्रमभावी है, और कुछ पदार्थोंको विषय करनेके कारण कथंचित् क्रमभावी है । इसी प्रकार कथंचित् उभय, अवक्तव्य आदि भी है । अथवा तत्त्वज्ञान अपने अर्थकी प्रमितिको उत्पन्न करनेके कारण कथंचित् प्रमाण है, और प्रमाणान्तरसे अथवा स्वतः प्रमेय होनेके कारण कथंचित् अप्रमाण (प्रमेय) है । उसी प्रकार कथंचित् उभय, अवक्तव्य आदि भी है । अथवा तत्त्वज्ञान कथंचित् सत् है, कथंचित् असत् है, कथंचित् उभय आदि भी है । इस तरह तत्त्वज्ञानके विषय में प्रमाण और नयकी अपेक्षा से अनेक सप्तभंगियाँ बन सकती हैं । इस प्रकार उक्त कारिकाके द्वारा प्रमाणके विषय में स्वरूपविप्रतिपत्ति संख्याविप्रतिपत्ति और विषयविप्रतिपत्ति इन तीन विप्रतिपत्तियोंका निराकरण किया गया है । 1 ३२४ अब प्रमाणके फल में विप्रतिपत्तिका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः । पूर्वावाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ॥ १०२ ॥ प्रथम जो केवल ज्ञान है, उसका फल उपेक्षा है । अन्य ज्ञानोंका फल आदान और हान ( ग्रहण और त्याग ) बुद्धि है । अथवा उपेक्षा भी उनका फल है । वास्तव में अपने विषयमें अज्ञानका नाश होना सब ज्ञानोंका फल है । यथार्थमें प्रमाणका फल दो प्रकारका है - एक साक्षात्फल और दूसरा परम्पराफल | अपने विषयमें अज्ञानका नाश होना सब ज्ञानोंका साक्षात् फल है । किसी वस्तुको ग्रहण करना या छोड़ देना अथवा उसकी उपेक्षा कर देना ये तीन ज्ञानके परम्पराफल हैं । केवलज्ञानका परम्पराफल उपेक्षा है । क्योंकि कृतकृत्य होनेसे केवलीको किसी वस्तुसे कोई प्रयोजन नहीं रहता । यही कारण है कि सब विषयोंमें उनकी उपेक्षा रहती है। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि केवली परम कारुणिक होते हैं । दूसरे प्राणियोंके दुःखको दूर करनेकी उनकी इच्छा रहती है। तब उनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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