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________________ ३२२ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद- १० परोक्ष हैं । इस प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्षमें सब प्रमाणोंका संग्रह हो जाता है । मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलके भेदसे आगममें ज्ञानके पाँच भेद बतलाये गये हैं । इनमेंसे मति और श्रुत ये दो ज्ञान परोक्ष हैं । तथा अवधि, मन:पर्यय और केवल ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । ज्ञानवरण कर्मके पूर्ण क्षयसे उत्पन्न केवलज्ञान सम्पूर्ण पदार्थोंको युगपत् जानता है । इसीलिए उसको अक्रमभावी कहा है । केवली सम्पूर्ण पदार्थोंको युगपत् जानता ही नहीं है, किन्तु देखता भी है । उसके ज्ञान और दर्शन दोनों एक साथ ही होते हैं, छद्मस्थकी तरह क्रमसे नहीं । यदि केवली में ज्ञान और दर्शन क्रमसे हों, तो वह सर्वज्ञ ही नहीं हो सकता है । क्योंकि दर्शन के समय ज्ञान नहीं रहेगा और ज्ञानके समय दर्शन नहीं रहेगा । इसलिए केवली में सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व एक साथ ही मानना चाहिए, तभी वह सर्वज्ञ हो सकता है । ऐसा कोई कारण भी नहीं है जिससे केवलीमें ज्ञान और दर्शन एक साथ न हो सकें । ज्ञानका प्रतिबन्धक ज्ञानावरण है और दर्शनका प्रतिबन्धक दर्शनावरण है । केवलीमें दोनोंका ही एक साथ क्षय हो जाता है । अतः केवलीमें ज्ञान और दर्शन एक साथ ही होते हैं । केवल ज्ञानको छोड़कर अन्य सब ज्ञान क्रमवर्ती हैं । मति आदि ज्ञान दर्शनके साथ नहीं होते हैं; किन्तु पहिले दर्शन होता है और इसके बाद मति आदि ज्ञान होते हैं । मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चार ज्ञानोंको क्रमभावी बतलाया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि मति आदि प्रत्येक ज्ञान अपने सब विषयोंको एक साथ नहीं जानता है, किन्तु क्रमशः ही जानता है । क्योंकि मति आदि ज्ञान क्षायोपशमिक हैं । जितने अंशमें मतिज्ञानावरणादिका क्षयोपशम होता है, उतने ही अंशमें ये ज्ञान पदार्थोंको जानते हैं । क्रमभावीका एक अर्थ यह भी होता है कि ये चारों ज्ञान किसी आत्मामें एक साथ नहीं होते हैं, किन्तु क्रमशः ही होते हैं । कोई यहाँ ऐसी आशंका कर सकता है कि मति आदि ज्ञान क्रमवर्ती नहीं हैं, किन्तु युगपदवर्ती हैं। क्योंकि - ' तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः' ऐसा सूत्रकारका वचन है । यहाँ शंकाकारका ऐसा अभिप्राय है कि मति आदि चारों ज्ञान एक साथ किसी अर्थको जान १. मतिश्रुतावधि मन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । २. ३. आद्ये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् । Jain Education International -- तत्त्वार्थ सूत्र १९, ११, १२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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