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________________ कारिका - ९० ] तत्त्वदीपिका २८५ उनकी प्रतिज्ञाकी हानि होती है। देखा जाता है कि देवके विना पुरुषार्थ भी नहीं होता है । कहा भी है तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः । सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ॥ जैसा भाग्य होता है वैसी ही बुद्धि हो जाती है, प्रयत्न भी वैसा ही होता है और उसीके अनुसार सहायक भी मिल जाते हैं । यदि ऐसा माना जाय कि बुद्धि, व्यवसाय आदि सब प्रकारके पुरुषार्थकी सिद्धि पौरुषसे ही होती है अर्थात् पौरुषकी सिद्धिमें भाग्य कारण नहीं है, तो इसका क्या कारण हैकि किसीका पौरुष सफल होता है और किसीका निष्फल | सब किसान समानरूपसे खेत जोतते हैं, बीज बोते हैं, अन्य परिश्रम भी समानरूपसे करते हैं । फिर क्या कारण है कि एकके खेत में अधिक धान्य उत्पन्न होता है और दूसरेके खेत में कम या बिलकुल नहीं । दो विद्यार्थी समानरूप से परीक्षाके लिए परिश्रम करते हैं, किन्तु उनमेंसे एक प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्ण होता है, और दूसरा तृतीय श्रेणीमें उत्तीर्ण होता है, अथवा अनुत्तीर्ण हो जाता है । अत: समान पुरुषार्थ होनेपर भी फलमें जो विषमता देखी जाती है, उससे ज्ञात होता है कि पुरुषार्थ में तथा पुरुषार्थके फलमें देव कारण होता है । कोई कहता है कि पौरुष दो प्रकारका होता है- एक सम्यग्ज्ञानपूर्वक और दूसरा मिथ्याग्ज्ञानपूर्वक । सम्यग्ज्ञानपूर्वक जो पौरुष है उसमें व्यभिचार नहीं देखा जाता है । केवल मिथ्याज्ञान पूर्वक पौरुषमें ही व्यभिचार पाया जाता है । इसलिए सम्यग्ज्ञान पूर्वक पौरुष सफल होता है, निष्फल नहीं । यह कथन भी ठीक नहीं है । हम पूँछ सकते हैं कि सम्यग्ज्ञान पूर्वक जिस पुरुषार्थ को सफल बतलाया गया है उसमें दृष्ट कारणों का सम्यग्ज्ञान अपेक्षित है या अदृष्ट कारणोंका । दृष्ट कारणों का सम्यग्ज्ञान होने पर भी फलमें व्यभिचार देखा जाता है । जैसेकि कृषि आदिके फलमें | और अदृष्ट कारणोंका सम्यग्ज्ञान अल्पज्ञोंके लिए असंभव ही है । ऐसी स्थिति में यह कहना ठीक नहीं है कि सम्यग्यानपूर्वक पुरुषार्थ निष्फल नहीं होता है । इसप्रकार देवैकान्तकी तरह पौरुषैकान्त पक्ष भी ठीक नहीं है । 1 उभयैकान्त तथा अवाच्यतैकान्तका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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