SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम परिच्छेद __ अन्तरङ्ग अर्थको ही प्रमाण माननेवालोंके मतका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं अन्तरङ्गार्थतैकान्ते बुद्धिवाक्यं मृपाऽखिलम् । प्रमाणाभासमेवातस्तत्प्रमाणादृते कथम् ।।७९।। केवल अन्तरङ्ग अर्थकी ही सत्ता है, ऐसा एकान्त माननेपर सब बुद्धि और वाक्य मिथ्या हो जावेंगे। और मिथ्या होनेसे वे प्रमाणाभास ही होंगे। किन्तु प्रमाणके विना कोई प्रमाणाभास कैसे हो सकता है। ____इस कारिकाके द्वारा ज्ञानाद्वैतका खण्डन किया गया है । ज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि अन्तरङ्ग अर्थ ( ज्ञान ) ही सत्य है, और जड़रूप बहिरङ्ग अर्थ असत्य है, क्योंकि उसमें स्वयं प्रतिभासित होनेकी योग्यता नहीं है । जो स्वयं प्रतिभासित नहीं होता है, वह सत्य नहीं है । ज्ञानाद्वैतवादियोंका उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं है। यदि अन्तरङ्ग अर्थ ही सत्य है, तो बुद्धि और वाक्य भी मिथ्या हो जाँयगे। यहाँ बुद्धिका तात्पर्य अनुमानसे है, तथा वाक्यका तात्पर्य आगमसे है। जब ज्ञानको छोड़कर अन्य कोई वस्तु सत्य नहीं है, तो अनुमान और आगम कैसे सत्य हो सकते हैं । असत्य होनेसे अनुमान और आगम प्रमाणाभास होंगे। क्योंकि जो सत्य है वह प्रमाण होता है, और जो असत्य है वह प्रमाणाभास होता है । किन्तु प्रमाणभास व्यवहार प्रमाणके होनेपर ही हो सकता है । जब ज्ञानाद्वैतवादियोंके यहाँ कोई प्रमाण ही नहीं है, तो बुद्धि और वाक्यको प्रमाणाभास कैसे कह सकते हैं । __ ज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि एक अद्वितीय ज्ञानका ही वेद्य-वेदकरूपसे प्रतिभास होता है। अन्य लोग वेद्य और वेदकका जैसा लक्षण मानते हैं, वह ठीक नहीं है । अर्थ वेद्य है, और अर्थग्राहक ज्ञान वेदक है, अथवा ज्ञानगत नीलाकार वेद्य है, और नीलाकार ज्ञान वेदक है, इत्यादि प्रकारसे वेद्य और वेदकका लक्षण माना गया है। सौत्रान्तिक मानते हैं कि जो अर्थसे उत्पन्न हो, अर्थके आकार हो, और जिसमें अर्थका अध्यवसाय हो, वह ज्ञान है। यह लक्षण ठीक नहीं है। ज्ञान चक्षुसे उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy