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कारिका-७५]
तत्त्वदीपिका सकता। और उनकी निरपेक्ष सत्ता मानने पर उसे सापेक्ष नहीं माना जा सकता। इसलिये धर्म-धर्मी आदि सर्वथा निरपेक्ष भी हैं, और सर्वथा सापेक्ष भी हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता है । जो लोग अवाच्यतैकान्त मानते हैं, उनका भी पक्ष ठीक नहीं है। क्यों कि यदि धर्म, धर्मी आदि सर्वथा अवाच्य हैं, तो अवाच्य शब्दके द्वारा भी उनका कथन नहीं हो सकता है। __ आपेक्षिक सिद्धि आदिके एकान्तका निराकरण करके अनेकान्तकी सिद्धि करनेके लिये आचार्य कहते हैं
धर्मधर्म्यविनाभावः सिध्यत्यन्योन्यवीक्षया ।
न स्वरूपं स्वतो ह्येतत् कारकज्ञापकाङ्गवत् ॥७५॥ धर्म और धर्मीका अविनाभाव ही परस्परकी अपेक्षासे सिद्ध होता है, उनका स्वरूप नहीं। वह तो कारक और ज्ञापकके अंगोंकी तरह स्वतः सिद्ध है।
धर्मा धर्मी आदिकी सत्ता न तो सर्वथा सापेक्ष है और न सर्वथा निरपेक्ष । किन्तु कथंचित् सापेक्ष और कथंचित् निरपेक्ष पक्षका आश्रय लेना ही उचित है । धर्म और धर्मीका परस्परमें जो अविनाभाव है, केवल वही परस्परकी अपेक्षासे सिद्ध होता है । धर्म और धर्मीका स्वरूप परस्परकी अपेक्षा से सिद्ध नहीं होता। वह तो स्वत: सिद्ध है। धर्मीके विना धर्म नहीं रह सकता है और धर्मके विना कोई धर्मी नहीं कहा जा सकता है। यह धर्म और धर्मीका अविनाभाव है । सामान्य और विशेषमें भी अविनाभाव ही परस्पर सापेक्ष है, स्वरूप नहीं। सामान्यके विना विशेष व्यवहार नहीं हो सकता है और विशेषके विना सामान्य व्यवहार नहीं हो सकता है। किन्तु दोनोंका स्वरूप स्वयं सिद्ध है। सामान्यके स्वरूपके लिये विशेषकी अपेक्षा नही होती है, और विशेषके स्वरूपके लिये सामान्यकी अपेक्षा नहीं होती है। कारकके अङ्ग कर्ता और कर्म हैं। ज्ञापकके अंग प्रमाण और प्रमेय हैं। कर्ता और कर्म परस्पर सापेक्ष भी हैं, और निरपेक्ष भी। कर्ता अपने स्वरूपके लिये कर्मकी अपेक्षा नहीं रखता है और कर्म अपने स्वरूपके लिये कर्ताकी अपेक्षा नहीं रखता है । इसी प्रकार प्रमाण भी अपने स्वरूपके लिये प्रमेयकी अपेक्षा नहीं रखता है और प्रमेय अपने स्वरूपके लिये प्रमाणकी अपेक्षा नहीं रखता है। किन्तु कर्ता और कर्म व्यवहार तथा प्रमाण और प्रमेय व्यवहार परस्पर सापेक्ष होते हैं । कर्ता कोई तभी कहा जाता है जब उसका
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