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________________ कारिका-७३ ] तत्त्वदीपिका २४९ कभी भी ज्ञेयरूपसे नहीं होता। अतः विशेषण-विशेष्य, सामान्य-विशेष, गुण-गुणी, क्रिया-क्रियावान्, कार्य-कारण, साध्य-साधन, ग्राह्य-ग्राहक, इन सबकी सिद्धि आपेक्षिक होनेसे इन सबका व्यवहार काल्पनिक है। ऐसा बौद्धोंका अभिप्राय है। __बौद्धोंका उक्त कथन अविचारितरम्य है। यदि धर्म, धर्मी आदिकी सिद्धि आपेक्षिक है, और आपेक्षिक होनेसे धर्म-धर्मी आदि मिथ्या हैं, तो स्वयं बौद्धोंके यहाँ किसी तत्त्वकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। नीलस्वलक्षण और नीलज्ञान परस्पर सापेक्ष हैं। नील नीलज्ञानके विना नहीं होता है। यदि नीलज्ञानके विना भी नीलका सद्भाव माना जाय, तो असत् वस्तुका भी सद्भाव मानना होगा। नीलज्ञान भी नीलके विना नहीं हो सकता है। क्योंकि नीलसे नीलज्ञानकी उत्पत्ति होती है। बौद्ध मानते हैं कि जिनकी आपेक्षिक सिद्धि होती है, वे मिथ्या हैं। इस मान्यताके अनुसार नील और नीलज्ञानकी सिद्धि परस्पर सापेक्ष होनेसे वे भी मिथ्या होंगे। जब दो वस्तुओंका सद्भाव सर्वथा परस्परकी अपेक्षासे होता है, और स्वतंत्ररूपसे किसीका अस्तित्व नहीं है, तो यह निश्चित है कि उनमेंसे किसीका भी सद्भाव सिद्ध नहीं हो सकता है। इस कारणसे सर्वथा आपेक्षिक सिद्धि मानना ठीक नहीं है। कार्य-कारण, सामान्य-विशेष आदिकी सत्ता सर्वथा आपेक्षिक नहीं है। किन्तु कार्यकारण आदिकी स्वतन्त्र सत्ता है, कार्य अपनी सत्ताके लिये कारणकी अपेक्षा नहीं करता है, और कारण अपनी सत्ताके लिये कार्यकी अपेक्षा नहीं करता है। एक पदार्थमें किसीकी अपेक्षासे जो दूर व्यवहार, और अन्यकी अपेक्षासे निकट व्यवहार होता है, वह भी सर्वक्षा आपेक्षिक नहीं है। पदार्थोंमें ऐसी स्वाभाविक विशेषता मानना होगी, जिसके कारण उनमें दूर और अदूर व्यवहार होता है। यदि पदार्थों में ऐसी स्वाभाविक विशेषता नहीं है, तो समान देश, और समान कालमें स्थित दो पदार्थोंमें भी दूर और निकट व्यवहार होना चाहिए। इसलिये दूर-निकट की तरह धर्म-धर्मी, कार्य-कारण आदि सर्वथा सापेक्ष नहीं हैं। क्योंकि उनको सर्वथा सापेक्ष मानने पर दोनोंके अभावका प्रसंग उपस्थित होता है। इस प्रकार बौद्धोंका सर्वथा सापेक्षवाद युक्तिसंगत नहीं है। वैशेषिक कहते हैं कि धर्म, धर्मी आदिकी सिद्धि सर्वथा अनापेक्षिक है। क्योंकि धर्म और धर्मी दोनों प्रतिनियत बुद्धिके विषय होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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