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________________ कारिका-५२ ] तत्त्वदीपिका २१७ विचार किया होगा, और कुछ समय बाद मारा होगा । कल्पना कीजिए कि पहले क्षणमें मोहनने सोहनको मारनेका विचार किया, और दूसरे क्षणमें उसे मार डाला । यतः प्रथम क्षणके मोहनसे दूसरे क्षणका मोहन नितान्त भिन्न है, अतः हिंसाका विचार करनेवाला मोहन दूसरा है, और मारने वाला मोहन दूसरा है । अथवा जिस मोहनने हिंसाका विचार किया था, उसने मारा नहीं, और जिसने मारा उसने हिंसाका विचार नहीं किया । अब बन्ध किसका होता है, इस बात पर भी विचार करना है । बन्ध होगा तीसरे क्षण वाले मोहन का, जोकि पहले, और दूसरे क्षणवाले मोहनसे भिन्न है | अतः बन्ध उसका हुआ, जिसने न हिंसाका विचार किया था, और न हिंसा ही की थी । मुक्ति भी जिसने बन्ध किया था, उसकी नहीं होगी, किन्तु जिसने बन्ध नहीं किया, ऐसे मोहन की ही मुक्ति होगी। क्योंकि जिस समय मुक्ति होगी, उस समयका मोहन बन्धके समय के मोहनसे अत्यन्त भिन्न है । इस प्रकार क्षणक्षयैकान्तमें कृतनाश और अकृत अभ्यागमका प्रसंग सुनिश्चित है । जिसने दान दिया या हिंसाकी उसको दान या हिंसाका फल नहीं मिलेगा | यह कृतनाश है । जिसने दान नहीं दिया या हिंसा नहीं की, उसको दानका या हिंसाका फल विना इच्छाके भी मिलेगा । यह अकृताभ्यागम है । निरन्वयक्षणिकवादमें ही कृतनाश और अकृताभ्यागमका प्रसंग आता है । किन्तु स्याद्वाद सिद्धान्त में इस प्रकारका कोई दोष संभव नहीं है । क्योंकि पदार्थका विनाश निरन्वय नहीं होता है, किन्तु सान्वय होता है । और पूर्व पर्यायका उत्तर पर्यायरूपसे परिणमन होता है । इसलिए जो कर्ता है, वही उसके फलको पाता है । जो बँधता है, वही मुक्त होता है । निरन्वय विनाशमें सन्तानकी अपेक्षासे भी बन्ध, मोक्ष आदिकी व्यवस्था नहीं बन सकती है, इस बात को पहले विस्तारपूर्वक बतलाया जा चुका है । निर्हेतुक विनाश मानने में दोष बतलानेके लिए आचार्य कहते हैंअहेतुकत्वान्नाशस्य हिंसा हेतुर्न हिंसकः । चित्तसन्ततिनाशश्च मोक्षो नाष्टांगहेतुकः ॥५२॥ विनाशके अहेतुक होने से हिंसा करनेवाला हिंसक नहीं हो सकता है । और चित्तसन्ततिके नाशरूप मोक्ष भी अष्टांगहेतुक नहीं हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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