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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-२ कहना भी ठीक नहीं है कि प्रत्यक्ष अर्थसंनिधानकी अपेक्षा रखने तथा विशद होनेके कारण परमार्थभूत वस्तुको विषय करता है । क्योंकि इन्द्रिय ज्ञान नियमसे अर्थसन्निधिकी अपेक्षा नहीं रखता है। यदि ऐसा होता तो केशोण्डकज्ञानकी तरह अर्थके अभावमें भी ज्ञान क्यों होता। इन्द्रियज्ञान नियमसे विशद भी नहीं होता है। निकटसे अर्थका जैसा विशद ज्ञान होता है, वैसा दूरसे नहीं होता है। इसलिए प्रत्यक्ष एकान्तरूपसे अर्थ संनिधानापेक्ष और विशद नहीं है, जिससे कि उसमें परमार्थभूत वस्तुको विषय करनेका नियम सिद्ध हो सके। जिस प्रकार शब्द अर्थको विषय नहीं करते हैं, और वासनाविशेषके कारण शब्दोंकी प्रवृत्ति होती है, उसी प्रकार अर्थको विषय न करने पर भी वासनाविशेषसे प्रत्यक्षकी प्रवृत्ति हो जायगी। ___ बौद्धोंका एक मत यह भी है कि शब्द अर्थको न कहकर वक्ताके अभिप्रायमात्रको सूचित करते हैं। इस मतके अनुसार कोई भी वचन सत्य नहीं हो सकता है । जिस प्रकार ईश्वर, प्रधान आदिको सिद्ध करनेवाले वचन मिथ्या हैं, उसी प्रकार क्षणभंगके साधक वचन भी मिथ्या ही होंगे। क्योंकि दोनों प्रकारके वचन केवल वक्ताके अभिप्रायमात्र को सूचित करते हैं। हम कह सकते हैं कि क्षणभंगके साधक वचन विद्यमान अर्थके प्रतिपादक न होनेसे सत्य नहीं हैं। जैसे कि 'नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्ति धावध्वं माणवकाः', यह वाक्य सत्य नहीं है। इसलिए यदि वचन वक्ताके अभिप्रायमात्रको सूचित करते हैं तो यह निश्चित है कि सम्यक् और मिथ्या वचनोंमें कोई भेद नहीं किया जा सकता है।
बौद्धोंके यहाँ स्वलक्षणको दृश्य कहते हैं, और सामान्यको विकल्प्य कहते हैं। लोग दृश्य और विकल्प्यमें एकत्वाध्यवसाय करके ( अर्थात् दोनोंको एक समझकर ) स्वलक्षणको भी शब्दका विषय समझने लगते हैं, ऐसा बौद्धोंका मत है, जो समीचीन नहीं है। यथार्थमें न तो दृश्य और विकल्प्य पृथक्-पृथक् हैं, और न उनमें भ्रमवश लोग एकत्वाध्यवसायकी कल्पना ही करते हैं । स्वलक्षण और सामान्य दोनोंका तादात्म्य है। यदि दृश्य और विकल्प्यमें कथंचित् भी तादात्म्य न हो, तो स्वलक्षणके स्वरूपका निर्णय ही नहीं किया किया जा सकता है। क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे स्वलक्षणका अवधारण नहीं हो सकता है। शब्द भी स्वलक्षणको विषय नहीं करते हैं। फिर स्वलक्षणके स्वरूपके निर्णय
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