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आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-२ अपेक्षासे संसारके सब पदार्थ कथंचित् एक हैं। सब पदार्थों में सत्, सत् ऐसी अनुवृत्त प्रतीति होनेके कारण सबको एक कहनेमें कोई विरोध भी नहीं है । विजातीय पदार्थ भी सत्ताको अपेक्षासे सजातीय ही हैं। यद्यपि ज्ञान और ज्ञेय पृथक-पृथक दो स्वतंत्र पदार्थ हैं, किन्तु सत्ताकी अपेक्षा से उनमें भी कोई भेद नहीं है। यदि ज्ञान और ज्ञेयमें सत्ताकी अपेक्षासे भी भेद माना जाय तो असत् होनेके कारण दोनोंका अभाव ही सिद्ध होगा । ज्ञानको ज्ञेयसे और ज्ञेयको ज्ञानसे सत्ताकी अपेक्षासे भी भिन्न माननेपर न ज्ञान सत् हो सकता है, और न ज्ञेय । अतः दोनोंको असत् होनेसे दोनोंका अभाव स्वतः सिद्ध हो जाता है। ज्ञान और ज्ञेय परस्पर सापेक्ष पदार्थ हैं। जो जानता है वह ज्ञान है, और जो जाना जाता है वह ज्ञेय है। ज्ञेयके अभावमें ज्ञान किसको ज्ञानेगा और ज्ञानके अभावमें ज्ञेयका ज्ञान कैसे होगा? ज्ञेय दो प्रकारका होता है-बहिरंग ज्ञेय और अन्तरंग ज्ञेय । घट, पट आदि बहिरंग ज्ञेय हैं। आत्मा और आत्माकी समस्त पर्यायें तथा गुण अन्तरंग ज्ञेय हैं । ज्ञानके अभावमें किसी भी ज्ञेयका सद्भाव नहीं हो सकता है। ज्ञानका ज्ञेयसे कथंचित् स्वभावभेद होनेपर भी सत्ताकी अपेक्षासे उनमें तादात्म्य है। विज्ञानाद्वतवादियोंके यहाँ एक ही ज्ञानमें ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार ये दो आकार होते हैं। आकारोंकी अपेक्षासे ज्ञानमें भेद होनेपर भी ज्ञानकी अपेक्षासे उन दोनों आकारोंमें तादात्म्य माना गया है। यदि सत्ताकी अपेक्षासे भी ज्ञानका ज्ञेयसे तादात्म्य न हो तो ज्ञान आकाशपुष्पके समान असत् होगा। और ज्ञानके अभावमें ज्ञेयका भो अस्तित्व नहीं सिद्ध हो सकेगा। क्योंकि ज्ञेय ज्ञानकी अपेक्षा रखता है । अतः ज्ञान और ज्ञेयमें सत्ताकी अपेक्षासे तादात्म्य मानना ही श्रेयस्कर है ।
शब्दका वाच्य पदार्थ नहीं है, किन्तु सामान्य ( अन्यापोह ) है, इस मतका खण्डन करनेके लिए आचार्य कहते हैं
सामान्यार्था गिरोऽन्येषां विशेषो नाभिलप्यते । सामान्याभावतस्तेषां मृषैव सकला गिरः ॥३१॥ कुछ लोगोंके मतमें शब्द सामान्यका कथन करते हैं। शब्दोंके द्वारा विशेषका कथन नहीं होता है। उन लोगोंके यहाँ सामान्यके मिथ्या होनेसे सामान्य प्रतिपादक समस्त वचन असत्य ही हैं।
बौद्धोंके अनुसार शब्दोंके द्वारा अर्थका कथन नहीं होता है, किन्तु
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