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________________ कारिका-२३] तत्त्वदीपिका १७३ तथा कोई स्वभाव गौण हो सकता है, और एक स्वभावकी अन्य स्वभावोंसे व्यावृत्ति भी हो सकती है। सब स्वभावोंके असत् होनेपर स्वभावोंके विषयमें किसी प्रकारकी व्यवस्था होना संभव नहीं हैं। अश्वविषाण, खरविषाण, गगनकुसुम ये सब ही असत् हैं। इनमेंसे एककी दूसरेसे व्यावृत्ति नहीं हो सकती है, तथा एकको प्रधान और दूसरोंको गौण नहीं कहा जा सकता है। इसलिए कल्पनाकृत अन्यव्यावृत्तिके द्वारा वस्तुमें स्वभावभेद मानने पर वस्तुके स्वभावका ही अभाव हो जायगा। तव वास्तविक वस्तुके माननेको भी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी, क्योंकि अवस्तुकी व्यावृत्तिसे वस्तु व्यवहार और वस्तुकी व्यावृत्तिसे अवस्तु व्यवहार बन जायगा। सब व्यवस्था व्यावृत्तिके द्वारा मानने पर प्रत्यक्ष प्रमाण भी स्वलक्षणको विषय न करके केवल व्यावृत्तिको ही विषय करेगा । यदि व्यावृत्तिका ही सद्भाव है, तो परमार्थभूत प्रमाण, प्रमेय आदि तत्त्वोंके अभावमें शन्यके अतिरिक्त कछ भी शेष नहीं रहेगा । अतः सत्, असत् आदि धर्म अन्यव्यावृत्तिके द्वारा काल्पनिक न होकर पारमार्थिक हैं। और एक धर्मकी विवक्षा होनेपर अन्य धर्म गौण हो जाते हैं, तथा वस्तुमें अनन्तधोंके सद्भावमें अनन्त स्वभावभेद भी पाये जाते हैं । इस प्रकार एक भङ्गके द्वारा एक ही धर्मका कथन होता है, शेष धर्मोंका नहीं। इसलिए द्वितीय आदि भङ्गोंका प्रयोग सार्थक और आवश्यक है। __ ऊपर सत्त्व और असत्त्वको लेकर सप्तभङ्गी की जो प्रक्रिया बतलायी गयी है, वही प्रक्रिया एक, अनेक आदि धर्मोको लेकर बनने वालो सप्तभङ्गीमें भी होती है, इसी बातको बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं एकानेकविकल्पादावुत्तरत्रापि योजयेत् । प्रक्रियां भङ्गिनीमेनां नयनयविशारदः ॥२३॥ नयविशारदोंको एक, अनेक आदि धर्मोंमें भी सात भङ्गवाली उक्त प्रक्रियाकी नयके अनुसार योजना करना चाहिए। ऊपर सत्त्व धर्मको लेकर सप्तभङ्गीका विवेचन किया गया है। इसी प्रकार अन्य जितने धर्म हैं, उनमेंसे प्रत्येक धर्मको लेकर सप्तभङ्गी होती है। जिस प्रक्रिया के अनुसार सत्त्वधर्मविषयक सप्तभङ्गी सिद्ध होती है, वही प्रक्रिया अन्यधर्मनिमित्तक सप्तभङ्गीमें भी जानना चाहिए। एकत्व धर्मको लेकर सप्तभङ्गीकी प्रक्रिया निम्न प्रकार होगी। १. स्यादेकं द्रव्यम्, २. स्यादनेक द्रव्यम्, २. स्यादेकमनेकं द्रव्यम्, ४. स्यादवक्तव्यं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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