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________________ १६० आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ गोत्वमात्रसे दुग्धका दोहन नहीं हो सकता है। केवल सामान्य अपने विषयका ज्ञान कराने में भी असमर्थ है। जो सामान्य सर्वथा नित्य है, वह न तो क्रमसे ही अर्थक्रिया कर सकता है, और न युगपत् । ऐसा कहना ठीक नहीं है कि सामान्य साक्षात् अर्थक्रिया नहीं करता है, किन्तु परम्परासे अर्थक्रिया करता है। ऐसा कहना तब ठीक हो सकता है, जब विशेषके साथ सामान्यका कोई सम्बन्ध हो । परन्तु विशेषके साथ सामान्य का न तो संयोग सम्बन्ध है, और न समवाय । फिर सामान्य परम्परासे कार्य कैसे कर सकता है। सर्वथा नित्य, सर्वगत, अमूर्त और एकरूप सामान्यकी उपलब्धि न होनेसे उसमें संकेत भी संभव नहीं है। और जिस अर्थमें संकेत नहीं होता है, वह शब्दका वाच्य भी कैसे हो सकता है। इस प्रकार सामान्यमात्र तत्त्व ब्रह्माद्वैतवादियोंके अनुसार सत् होकर भी अवाच्य है। बौद्ध केवल विशेष तत्त्वका सद्भाव मानते हैं, सामान्यका नहीं। उनकी दृष्टिमें सामान्यकी कोई सत्ता नहीं है, सामान्य अभावरूप है, अभावरूप सामान्यको अन्यापोह कहते हैं। और अन्यापोहको शब्दका वाच्य मानते हैं। किन्तु जब अन्यापोह सर्वथा असत् है, तो वह शब्दका वाच्य भी नहीं हो सकता है । बौद्धों के अनुसार शब्द वस्तुके वाचक नहीं हैं, और न वस्तु शब्दका वाच्य है। शब्दोंके द्वारा अन्यव्यावृत्तिका कथन होता है । गो शब्द गायको नहीं कहता है, किन्तु अगोव्यावृत्तिको कहता है। गौको छोड़कर हाथी, घोड़ा आदि समस्त पदार्थ अगौ हैं। यह हाथी नहीं है, घोड़ा नहीं है, इत्यादि रूपसे अन्य पदार्थों की व्यावृत्ति हो जाने पर गौकी प्रतीति होती है। किन्तु हम देखते हैं कि गो शब्दको सुनकर साक्षात् गायका ज्ञान होता है, अन्यव्यावृत्ति का नहीं। जिस शब्दको सुनकर जिस अर्थमें प्रतीति, प्रवृत्ति और प्राप्ति हो, वही शब्दका वाच्य होता है। गो शब्दको सुनकर गायमें ही प्रतीति आदि होते हैं, अतः गायको ही गो शब्दका वाच्य मानना ठीक है, अगोव्यावृत्ति को नहीं। अन्यापोहमें संकेत भी संभव नहीं है, क्योंकि न तो उसका कोई स्वभाव है, और न वह कोई अर्थक्रिया करता है। इसलिए यह सुनिश्चित है कि बौद्धोंके द्वारा माना गया असत् सामान्य शब्दोंका वाच्य नहीं हो सकता है। बौद्ध स्वलक्षणका सद्भाव मानते हैं, किन्तु स्वयं उनके अनुसार स्वलक्षण शब्दका वाच्य नहीं है। क्योंकि शब्द तथा विकल्पका स्वलक्षणके साथ कोई सम्बन्ध नहीं हैं। इस दृष्टिसे बौद्धमतके अनुसार सामान्यकी अपेक्षासे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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