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आप्तमीमांसा [ परिच्छेद-१ और उसका व्यवसाय करे वह ज्ञान प्रमाण है। ऐसा मानकर भी उनको यह मानना ही पड़ता है, कि जो ज्ञान अपने विषयकी उपलब्धि करता है, वह ज्ञान प्रमाण है। बुद्धिमें ऐसी योग्यता तो मानना ही पड़ेगी जिसके कारण वह पदार्थके आकारको धारण करती है । फिर उसी योग्यताके द्वारा नियमसे उस अर्थकी उपलब्धि मानने में कौन सी हानि है। पदार्थजन्य, पदार्थाकार और पदार्थका व्यवसाय करनेवाला ज्ञान भी अप्रमाण देखा जाता है, जैसे कामला रोगवाले व्यक्तिको शुक्ल शंखमें पीताकार ज्ञान । अतः ज्ञानकी प्रमाणताका नियामक तदुत्पत्ति आदि नहीं हैं, किन्तु अपने विषयकी सम्यक् प्रतीति ही ज्ञानकी प्रमाणताका नियामक है। जो व्यक्ति यर्थार्थ प्रतीतिको प्रमाण नहीं मानता है, वह न तो स्वपक्षकी सिद्धि ही कर सकता हैं, और न परपक्षमें दूषण ही दे सकता है। जो प्रमाणको ही नहीं मानता है, वह स्वतमसिद्ध पदार्थका ज्ञान नहीं कर सकता है, दूसरोके लिए उसका प्रतिपादन नहीं कर सकता है, और दूसरे मतका खण्डन भी नहीं कर सकता है। इसलिए प्रमाणको मानना अत्यन्त आवश्यक है । स्वविषयकी उपलब्धि करनेवाला प्रमाण इस बातकी सिद्धि करता है, कि पदार्थ स्वरूपादिकी अपेक्षासे भावरूप है, तथा पररूपादिकी अपेक्षासे अभावरूप है। जो व्यक्ति स्वविषयकी उपलब्धि करनेवाले प्रमाणको नहीं मानता है, वह न किसी विषयमें प्रवृत्ति कर सकता है, और न निवृत्ति । जैसे कि वह दुसरेके ज्ञानसे किसी विषयमें प्रवृत्ति-निवृत्ति नहीं कर सकता है। प्रमाण अपने अर्थकी उपलब्धि करता है, और दूसरेके अर्थकी उपलब्धि नहीं करता है। इसलिए प्रमाण भी कथंचित् सदसदात्मक है। इस प्रकार जितने भी पदार्थ हैं, वे सब क्रमसे उभय ( सत्त्व और असत्त्व ) धर्मोंकी प्रधानता होनेसे उभयात्मक हैं।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जब वस्तु उभयात्मक है, तो अवाच्य होना कैसे संभव है। इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है। वस्तु अवक्तव्य उस समय होती है, जब कोई व्यक्ति वस्तुके उभय धर्मोको एक समयमें एक ही शब्दके द्वारा प्रधानरूपसे कहना चाहता है। शब्दमें वाचक शक्ति है, उसका ऐसा स्वभाव है कि एक समयमें एक शब्दके द्वारा एक ही धर्मका कथन किया जा सकता है। एक समयमें एक शब्दके द्वारा दो धर्मोंका कथन किसी भी प्रकार संभव नहीं है। जब कोई एक समयमें एक शब्दके द्वारा वस्तुके दो धर्मोंको कहना चाहता है, तो उसको ऐसे शब्दके अभावमें उस समय चुप ही रहना पड़ेगा। अतः यह सिद्ध होता है,
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