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________________ कारिका-११] तत्त्वदीपिका १२५ कोई दोष संभव नहीं है । उत्पाद आदि वस्तुसे कथंचित् अभिन्न हैं और कथंचित् भिन्न । अभिन्न इसलिये हैं कि उनको द्रव्यसे पृथक् नहीं किया जा सकता है। और भिन्न इसलिये हैं कि ये तीनों पृथक् पृथक् पर्यायें हैं । उत्पादका ही नाश और स्थिति होती है, नाशकी ही उत्पत्ति और स्थिति होती है तथा स्थितिका ही नाश और उत्पाद होता है । इसलिये एक होकर भी ये तीन रूप हैं। जीव, पुदगल आदि जितने द्रव्य हैं उन सबमें अनन्त पर्याय पायी जाती हैं। शुद्ध निश्चयनयकी दृष्टिसे केवल सत्तामात्र एक ही द्रव्य है । सत्ताका ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार रूपसे व्यवहार होता है। सत्तामें ही परस्परमें व्यावत्त स्वभाव वाले अनन्त गुण और पर्यायें पायी जाती हैं। इस प्रकार पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिसे सब वस्तुओंकी दूसरी वस्तुओंसे व्यावृत्ति सिद्ध होती है। इसी व्यावृत्तिका नाम अन्योन्याभाव है, जिसका मानना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि इसके न माननेसे अनेक दोष आते हैं। इसी प्रकार अत्यन्ताभावके न माननेसे किसी भी तत्त्वकी व्यवस्था नहीं हो सकती है। अत्यन्ताभावके अभावमें जड़ चेतन हो जायगा और चेतन जड़ हो जायगा। आत्माके गुण ज्ञान आदिकी घटादि पदार्थों में भी उपलब्धि होगी, और पुद्गलके गुण रूप आदिकी आत्मामें भी उपलब्धि होगी। किन्तु ऐसा त्रिकालमें भी संभव नहीं है । इसलिए अत्यन्ताभावका सद्भाव अवश्य है, जिसके कारण जड़ सदा जड़ ही रहता है, और चेतन सदा चेतन ही रहता है। बौद्ध कहते हैं कि अभावको ग्रहण करनेवाला कोई प्रमाण न होनेसे अभावकी सत्ता सिद्ध नहीं होती है। जो प्रमाणकी उत्पत्तिका कारण नहीं होता है, वह प्रमाणका विषय भी नहीं होता है। प्रत्यक्षकी उत्पत्ति स्वलक्षणसे होती है, इसलिए वह स्वलक्षण को ही जानता है । अभाव प्रत्यक्षको उत्पत्तिका कारण नहीं है तो प्रत्यक्षका विषय कैसे हो सकता है । अनुमानकी उत्पत्ति भी सामान्यसे होती है, और वह सामान्यको ही जानता है, अभाव को नहीं । अभाव न तो किसीका कारण है, और न स्वभाव । अत: कार्यहेतुजन्य और स्वभावहेतुजन्य अनुमानसे अभावकी सिद्धि नहीं हो सकती है । 'अत्र घटोनास्त्यनुपलब्धेः' यहाँ अनुपलब्धि हेतुसे अभावका ज्ञान नहीं होता है, किन्तु घट रहित पृथिवीका ज्ञान होता है। और घट रहित पृथिवीका नाम अभाव नहीं हो सकता है, क्योंकि पृथिवी भावरूप पदार्थ है। इस प्रकार अभावका ग्राहक न प्रत्यक्ष है, और न अनुमान, फिर अभावकी सत्ता कैसे मानी जा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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