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________________ कारिका-१०] तत्त्वदीपिका ११७ अनादि है, और उसकी अभिव्यक्ति भी अनादि है, तो घटकी निष्पत्तिके लिये कुंभकारका व्यापार अनर्थक ही सिद्ध होगा। यदि सांख्य प्रागभावको तिरोभाव नामसे कहना चाहता है, तो इससे केवल नाममात्रमें ही विवाद सिद्ध होता है, अर्थमें नहीं। इस प्रकार सांख्यको घटादिका प्रागभाव और मीमांसकको शब्दका प्रागभाव अवश्य मानना चाहिए, क्योंकि प्रागभावको न माननेसे उनके मतमें अनेक दोष आते हैं। मीमांसक यदि प्रागभावकी तरह शब्दका विनाश ( प्रध्वंसाभाव ) नहीं मानते हैं, तो शब्द एक क्षणके बाद दूसरे क्षणमें भी सुनाई पड़ना चाहिए। यदि माना जाय कि शब्दके ऊपर आवरण हो जानेके कारण दूसरे क्षणमें शब्द सुनाई नहीं पड़ता है, तो प्रश्न होगा कि आवरणने शब्दकी सुनाई पड़नेरूप शक्तिका नाश किया या नहीं। यदि आवरणने शब्दके स्वरूपमें कुछ भी परिवर्तन नहीं किया, तो वह आवरण ही नहीं हो सकता है। और यदि आवरणने शब्दमें श्रावण शक्तिका नाश कर दिया तो शब्दमें पूर्व स्वभावके नाशसे अनित्यताका प्रसंग प्राप्त होगा। और शब्दमें दो स्वभाव मानना होंगे-एक आवृत और दूसरा अनावृत। इन दोनों स्वभावोंमें विरोधके कारण अभेद नहीं माना जा सकता है । फिर भी यदि अभेद माना जाय तो शब्दको या तो सदा सुनाई पड़ना चाहिए या कभी नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है कि शब्द कभी तो सुनाई पड़े और कभी सुनाई न पड़े। शंका-अन्धकार घट आदि पदार्थोंका आवरण माना जाता है, क्योंकि अन्धकारके होनेपर घट आदि पदार्थ दिखते नहीं हैं। किन्तु अन्धकारके द्वारा घट आदिके स्वरूपका नाश नहीं होता है। उसी प्रकार आवरणके द्वारा शब्दके स्वरूपका भो नाश नहीं होता है। उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है कि अन्धकारके द्वारा घट आदिके स्वरूपका नाश नहीं होता है। यदि अन्धकार किसी भी रूपमें घटके स्वरूपका नारा नहीं करता है, तो जिस प्रकार अन्धकारके पहले घट दिखता था उसी प्रकार अन्धकारमें भी दिखना चाहिए। अतः यह मानना होगा कि अन्धकार भी किसी न किसी रूप में घट आदिके स्वरूपका नाश करता है। मीमांसक कहते हैं, कि शब्दका स्वभाव तो सदा सुनाई पड़नेका है, परन्तु सहकारी कारणोंके अभावमें शब्द सुनाई नहीं पड़ता है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि शब्द अपने ज्ञानको उत्पन्न करनेमें अर्थात् सुनाई पड़ने में स्वयं समर्थ है, या नहीं। यदि समर्थ है, तो सुनाई पड़नेमें सहकारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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