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________________ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद- १ प्रध्वंसाभाव न मानने पर बुद्धि आदि अनन्त हो जायगे और उनका कभी नाश नहीं होगा । तब पाँच भूत पाँच तन्मात्राओंमें लयको प्राप्त होते हैं, पाँच तन्मात्रा और ग्यारह इन्द्रियाँ अहंकार में लयको प्राप्त होते हैं । और अहंकार बुद्धिमें तथा बुद्धि प्रकृतिमें लीन हो जाती है, इस प्रकार बुद्धि आदिका लय बतलाना व्यर्थ हो जायगा । १०८ प्रकृति और पुरुष में अत्यन्ताभावके न माननेसे प्रकृति और पुरुषमें कोई भेद नहीं रहेगा । तब दोनोंमें भेद बतलाने से क्या लाभ । दोनोंमें भेद इस प्रकार बतलाया गया है त्रिगुणमविवेकि विषयः सामान्यमचेतनं प्रसवर्धाम । व्यक्तं तथा प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुमान् ॥ व्यक्त और अव्यक्तमें सत्त्व, रज और तम ये तीन गुण पाये जाते हैं, उनमें प्रकृति और पुरुषका विवेक नहीं रहता है, वे पुरुषके भोग्य होते हैं, सामान्य तथा अचेतन होते हैं, और उनका स्वभाव उत्पत्ति करनेका है । पुरुषका लक्षण उक्त लक्षणसे नितान्त भिन्न है । पुरुष में तीन गुण नहीं पाये जाते हैं, भेद विज्ञान पाया जाता है, पुरुष किसीका भोग्य नहीं है, विशेष तथा चेतन है, पुरुषका स्वभाव किसीकी उत्पत्ति करनेका नहीं पुरुष कारण रहित, नित्य, व्यापक, निष्क्रिय, निरवयव और स्वतंत्र है । इस प्रकार अन्योन्याभाव आदिके न माननेसे सांख्यमतमें किसी भी तत्त्वCat यवस्था नहीं हो सकती है । - सांख्यका० ११ यदि सांख्य व्यक्त और अव्यक्तमें अन्योन्याभावको व्यक्त और अव्यक्त स्वरूप, प्रकृति और पुरुषमें अत्यन्ताभावको प्रकृति और पुरुषस्वरूप, बुद्धि आदिके प्रागभावको बुद्धि आदिके कारणरूप और पञ्च महाभूतोंके प्रध्वंसाभावको तन्मात्रारूप मान लेता है, तो ऐसा मानना ठीक है । क्योंकि अभाव कोई पृथक् पदार्थ नहीं है, जैसा कि नैयायिक मानते हैं, किन्तु एक पदार्थका अभाव दूसरे पदार्थरूप होता है, जैसे कि घटका अभाव भूतल स्वरूप है । किन्तु ऐसा मानने से सांख्यका भावेकान्त नहीं बनेगा । इसी प्रकार पर्याय रहित द्रव्यैकान्त माननेपर एक ही वस्तु सब रूप हो जायगी । और ऐसा होनेपर प्रकृति और पुरुष में भी कोई विशेषता नहीं रहेगी। क्योंकि प्रकृति और पुरुषमें सत्ताकी दृष्टिसे ऐक्य है । तब केवल सत्तामात्र (ब्रह्म ) तत्त्व की ही सत्ता रहेगी । किन्तु सन्मात्र ब्रह्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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