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________________ कारिका-८] तत्त्वदीपिका १०३ असत् मानता है ) के यहाँ पदार्थोंको असत् होनेके कारण कर्म आदिकी उत्पत्तिमें कोई बाधा नहीं आती है। असत् वस्तुकी ही उत्पत्ति होती है, सत्की नहीं। उत्तर--जिस प्रकार सत्त्वैकान्तवादीके मतमें कर्म आदिकी उत्पत्तिका विरोध है, उसी प्रकार असत्त्वैकान्तवादीके मतमें भी कर्म आदिकी उत्पत्तिका विरोध है। जो वस्तु विद्यमान है उसकी उत्पत्ति नहीं होती है। घटके एक बार उत्पन्न होने पर पुनः वही घट दूसरी बार उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार जो वस्तु असत् है उसकी भी उत्पत्ति नहीं होती है । वन्ध्यापुत्र, आकाशपुष्प आदिकी उत्पत्ति कभी किसीने नहीं देखी । असत्त्वैकान्तवादीके यहाँ सब प्रतिभास अविद्या हेतुक होते हैं। संवृतिसत् होनेसे अविद्या असत् है, पदार्थ असत् हैं और पदार्थोंका प्रतिभास भी असत् है । इस प्रकार जब सब कुछ असत् है, तो किसी वस्तुकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है। ऊपर सत्त्वैकान्तवादी तथा असत्त्वैकान्तवादीके मतमें जो दोष दिया गया है, वही दोष ज्ञानमात्रकी सत्ता माननेवाले योगाचार तथा ज्ञान और अर्थ दोनोंकी सत्ता माननेवाले सौत्रान्तिकके मतमें भी आता है। अर्थात् इन मतोंमें भी कार्यकी उत्पत्ति संभव नहीं है। योगाचारके यहाँ पूर्व ज्ञानक्षणका उत्तर ज्ञानक्षणके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। सौत्रान्तिकके यहाँ भी पूर्व ज्ञानक्षण तथा पूर्व अर्थक्षणका उत्तर ज्ञानक्षण तथा उत्तर अर्थक्षणके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। दोनों क्षणोंकी सत्ता स्वतंत्र है। जब पहिला क्षण पूर्णरूपसे समाप्त हो जाता है तब दूसरे क्षणकी उत्पत्ति होती है । घटके फूटनेसे कपालकी उत्पत्ति नहीं होती है, किन्तु घटका फटना अन्य बात है, और कपालकी उत्पत्ति दूसरी बात है। अभिप्राय यह है कि योगाचार और सौत्रान्तिक मतमें दो क्षणोंमें कोई अन्वय न होनेसे कार्यकी उत्पत्तिका कोई हेतु नहीं है। और हेतुके अभावमें कार्यकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है। पूर्वक्षणके बाद ही उत्तरक्षणकी उत्पत्ति होनेसे पूर्वक्षणको उत्तरक्षणका कारण मानना ठीक नहीं है । क्योंकि पूर्वक्षण उत्तरक्षणकी उत्पत्ति काल में विद्यमान नहीं रहता है । कारण वही हो सकता है जो कार्यकालमें विद्यमान हो। पूर्वक्षण उत्तरक्षणकी उत्पत्तिके समय विद्यमान नहीं रहता है। अतः वह चिरकाल पहले विनष्ट क्षणकी तरह उत्तरक्षणका कारण नहीं हो सकता । जब पूर्वक्षणके रहनेपर उत्तरक्षणकी उत्पत्ति नहीं होती है, और पूर्वक्षणके नष्ट हो जानेपर निमयसे उत्तरक्षणकी उत्पत्ति हो जाती है, तो उत्तरक्षण पूर्वक्षणका कार्य कैसे माना जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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