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________________ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद-१ कुछ अवशिष्ट नहीं रहता। उक्त प्रकारके निर्वाणकी कल्पना सर्व असंगत है । इसप्रकारके निर्वाणमें तो कुछ भी शेष नहीं रहता है। निर्वाण तो वह है जिसमें आत्मा अपने अनन्त ज्ञानादि गुणोंकी अनुभूतिमें सदा रत रहता है। इसप्रकार सांख्य आदिके द्वारा अभिमत मोक्ष तत्त्वका स्वरूप युक्ति और आगमसे विरुद्ध है। इसीप्रकार सांख्य आदिके द्वारा माना गया मोक्षकारण तत्त्व ( मोक्षका कारण ) भी ठीक नहीं है। प्रायः सबने ज्ञानमात्रको मोक्षका कारण माना है। किन्तु यदि ज्ञानमात्र ही मोक्षका कारण है तो पूर्ण ज्ञानके होते ही मोक्षकी प्राप्ति हो जायगी। और ऐसी स्थितिमें योगी द्वारा तत्त्वोंका उपदेश नहीं हो सकेगा। ज्ञानकी प्राप्तिके पहले उपदेश देना ठीक नहीं है, क्योंकि उस उपदेशमें प्रामाणिकता नहीं रहेगी। ज्ञान प्राप्तिके बाद भी उपदेश संभव नहीं है। क्योंकि ज्ञान प्राप्ति होते ही मोक्ष हो जायगा। किन्तु यह सबने माना है कि ज्ञान प्राप्तिके बाद आप्त ठहरा रहता है और संसारी प्राणियोंको मोक्ष आदिका उपदेश देता है। इसलिये यह मानना होगा कि पूर्णज्ञान हो जानेपर भी ऐसे किसी कारणकी अपूर्णता रहती है, जिसके कारण मोक्ष नहीं होता है। वह कारण है सम्यक्चारित्र । सम्यग्ज्ञानके होने पर भी सम्यकचारित्रके अभावमें मोक्ष नहीं होता है। सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र सहित सम्यग्ज्ञान मोक्षका कारण होता है, न कि केवल सम्यग्ज्ञान । जिसप्रकार मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीनों संसारके कारण हैं, उसीप्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मोक्षके कारण हैं । इसलिये ज्ञानमात्रको मोक्षका कारण कहना युक्ति और आगम विरुद्ध है । क्योंकि स्वयं उन्हींके आगममें दीक्षा, शिरमुण्डन आदिको भी मोक्षका कारण बतलाया है। ___ अन्य मतोंमें संसार तत्त्वकी व्यवस्था भी न्याय और आगमसे विरुद्ध है । सांख्यमतमें नित्यैकान्त माना गया है। पुरुष कूटस्थ नित्य है, वह किसीका कर्त्ता नहीं है और उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं होता है । यदि पुरुष कुटस्थनित्य है तो उसको संसार ही नहीं हो सकता । एक अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्थाको प्राप्त करना ही संसार है। जब पुरुष एकान्तरूपसे नित्य है तो उसमें एक अवस्थाका त्याग और दूसरी अवस्थाकी उत्पत्ति किसी प्रकार संभव नहीं है। ऐसी स्थितिमें पुरुषको संसार कैसे संभव हो सकता है। अचेतन होनेसे प्रकृतिको भी संसार नहीं हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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