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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ है जो चेतन हो और अज्ञानका विरोधी हो। एक घटको दूसरा घट नहीं जान सकता, क्योंकि वह अचेतन है । अन्धकारका नाश अन्धकारसे नहीं होता है, किन्तु अन्धकारके नाशके लिये प्रकाशको आवश्यकता पड़ती है। इसलिये ज्ञान अचेतन प्रकृतिका धर्म नहीं है, किन्तु चेतन आत्माका धर्म है । ज्ञान, दर्शन आदि आत्माके गुणोंका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि ज्ञान आदि अचेतन नहीं हैं, किन्तु चेतन हैं। सांख्योंका कहना है कि यद्यपि ज्ञान स्वयं चेतन नहीं है, किन्तु चेतन आत्माके संसर्गसे चेतन जैसा प्रतीत होता है। जैसे अग्निके संसर्गसे लोहेका गोला भी अग्नि जैसा प्रतीत होने लगता है। किन्तु यदि चेतनके संसर्गसे अचेतन वस्तु भी चेतन हो जाय तो शरीरको भी चेतन हो जाना चाहिये । क्योंकि चेतन आत्माका संसर्ग शरीरके साथ भी है। अतः ज्ञान आदि अचेतन नहीं हैं, किन्तु आत्माके स्वभाव या धर्म हैं। इसप्रकार सांख्य द्वारा अभिमत मोक्ष तत्त्व समीचीन नहीं है।
नैयायिक और वैशेषिक मोक्षका स्वरूप इसप्रकार मानते हैं-'बुद्धयादिविशेषगुणोच्छेदादात्मत्वमात्रेऽवस्थानं मुक्तिः'-बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, और संस्कार आत्माके इन नौ विशेष गुणोंका नाश हो जाने पर आत्माका आत्मामात्रमें स्थित होना मुक्ति है। यद्यपि ज्ञान आदि आत्माके गुण हैं, किन्तु ये गुण आत्मासे भिन्न हैं, और समवाय सम्बन्धसे आत्मामें रहते हैं। जब तक संसार है तभी तक इन गुणोंका आत्मामें सद्भाव रहता है, और मोक्षमें इन गुणोंका पूर्णरूपसे अभाव हो जाता है।
नैयायिक और वैशेषिकका उक्त मत भी विचार करने पर असंगत ही प्रतीत होता है । उक्त मतके अनुसार मुक्ति प्राप्तिका अर्थ हुआ-- स्वरूपकी हानि । संसारके प्राणी संसारके दुःखोंसे छूट कर अपने स्वाभाविक स्वरूपको प्राप्त करनेके लिए ही मुक्तिको चाहते हैं। यदि उन्हें यह मालूम हो जाय कि मुक्तिमें वे अपने स्वरूपको खोकर पत्थरके समान हो जाँयगे तो वे ऐसी मुक्तिको दूरसे ही हाथ जोड़ लेंगे। इसीलिए कुछ लोग वैशेषिक मतकी मुक्तिकी अपेक्षा वृन्दावनके बनमें शृगाल होना अच्छा समझते हैं। क्योंकि वहाँ खानेको हरी घास और पीनेको ठण्डा पानी तो मिलेगा। नैयायिक और वैशेषिकोंका कहना है कि बुद्धि आदि गुण आत्मा से भिन्न हैं। क्योंकि आत्मा नित्य है, उसका कभी नाश या उत्पाद नहीं होता, किन्तु गुण उत्पन्न और नष्ट होते हैं। इसीलिए दोनोंमें स्वभाव भेद है। किन्तु ऐसा मानने पर भी ज्ञानादिको आत्मासे सर्वथा भिन्न नहीं
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