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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद-१ अग्नि प्रत्यक्ष नहीं है, किन्तु वह तिरोहित अवस्थामें अवश्य विद्यमान है। उसी तिरोहित अग्निसे अग्निकी उत्पत्ति होती है। यदि चावकि अग्निके विना अग्निकी उत्पत्ति मानता है, तो जलके विना जलकी उत्पत्ति, पृथिवीके विना पृथिवीकी उत्पत्ति और वायुके विना वायुकी उत्पत्ति भी मानना पड़ेगी। तब पृथिवी आदि चार तत्त्वोंका मानना भी व्यर्थ ही है, क्योंकि किसी एक तत्त्वके माननेपर भी अन्य तत्त्वोंको उत्पत्ति वन जायगी।
चैतन्य और भूतोंको विजातीय होनेसे उनमें उपादान-उपादेयभाव नहीं हो सकता है। विजातीय होनेका कारण यह है कि उन दोनोंका लक्षण भिन्न-भिन्न है। जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पाये जाँय वह भत है, और जिसमें ज्ञान-दर्शन पाया जाय और जो अपना अनुभव कर सके वह चैतन्य है। भूतोंमें न तो ज्ञान-दर्शन पाया जाता है और न स्वसंवेदन ही। यह बात इसीसे सिद्ध है कि भतोंको अनेक व्यक्ति प्रत्यक्षसे देखते हैं, किन्तु ज्ञान-दर्शनको कोई नहीं देख सकता है। ज्ञान-दर्शन या चैतन्यशक्ति यदि भूतोंके गुण होते तो रूप, रस आदिकी तरह ज्ञानदर्शन आदिका भी प्रत्यक्ष होना चाहिये । मृत्यु हो जानेपर भी जैसे मृत शरीरमें रूप, रस आदि गुण विद्यमान रहते हैं, उसी प्रकार चतन्यशक्ति भी वहाँ विद्यमान रहना चाहिये। किन्तु ऐसा कभी देखने में नहीं आया । इसलिये यह मानना पड़ेगा कि ज्ञान और दर्शन पृथिवी आदि भूतोंके लक्षण नहीं हैं, किन्तु चैतन्यके लक्षण हैं । भूत और चैतन्य दोनोंके लक्षण भिन्न-भिन्न होनेसे उनमें सजातीयता सिद्ध नहीं हो सकती है । यतः भूत
और चैतन्य विजातीय हैं, अत: भूत त्रिकालमें भी चैतन्यके उपादान कारण नहीं हो सकते हैं। यदि विजातीयसे विजातीयकी उत्पत्ति मानी जाय तो बालुसे तेलकी और जलसे दधिकी उत्पत्ति भी मानना पड़ेगी। इसप्रकार अकाट्य युक्तियोंसे यह सिद्ध होता है कि भूत चैतन्यके उपादान कारण नहीं हैं। इसलिये यह सिद्ध होता है कि गर्भ में स्थित चैतन्यका उपादान कारण पूर्वजन्मका चैतन्य ही है। वही चैतन्य एक भवसे दूसरे भवमें जाता है। तथा प्रत्येक भवमें नया-नया चैतन्य उत्पन्न नहीं होता है।
आत्माको नित्यताको सिद्ध करनेवाले अन्य भी कई हेतु हैं। जिस समय बालक गर्भसे उत्पन्न होता है उसको दूध पीनेकी इच्छा क्यों होती है ? दूध पीनेकी इच्छा पहिले भवमें भोजन करनेके संस्कारके कारण
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