SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारिका-६] तत्त्वदीपिका ওও उत्तर-मीमांसककी उक्त शंका ठीक नहीं है । इस प्रकारके असंगत विकल्पों द्वारा किसी भी विषयमें दूषण दिया जा सकता है। मीमांसक 'नित्यः शब्दः प्रत्यभिज्ञायमानत्वात्', 'शब्द नित्य है, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान प्रमाणके द्वारा यह वही शब्द है ऐसा ज्ञान होता है, इस अनुमानसे शब्दोंको नित्य सिद्ध करते हैं। यहाँ भी पूर्वोक्त विकल्प उपस्थापित किये जा सकते हैं। मीमांसक उक्त अनुमान द्वारा कैसे शब्दोंको नित्य सिद्ध करना चाहते हैं, सर्वगत शब्दोंको या असर्वगत शब्दोंको अथवा सामान्यसे शब्दमात्रको । यदि सर्वगत शब्दोंको नित्य सिद्ध करना अभीष्ट है, तो 'नित्यः शब्द: प्रत्यभिज्ञायमानत्वात्', इस अनुमानमें 'सर्वगत' शब्द न आनेसे सर्वगत शब्दोंको नित्य सिद्ध करना कैसे संभव है। तथा सर्वगत शब्दोंको नित्य सिद्ध करने में जो हेतु दिया जाता है, असर्वगत शब्दोंको नित्य सिद्ध करने में भी वही हेतु दिया जा सकता है। यदि उक्त अनुमान द्वारा असर्वगत शब्दोंको नित्य सिद्ध किया गया है, तो यह बात मीमांसकको अनिष्ट है, क्योंकि मीमांसक शब्दको असर्वगत नहीं मानते हैं। सर्वगत और असर्वगतको छोड़कर अन्य कोई शब्द शेष नहीं रहता है, जिसे नित्य सिद्ध किया जाय । यदि मीमांसक कहें कि सर्वगत या असर्वगतकी अपेक्षा न करके हम तो केवल शब्द सामान्यको नित्य सिद्ध करते हैं, तो यही बात सर्वज्ञ के विषयमें भी मान लीजिये।' जैन भी पहिले अर्हन्त या अनर्हन्तको सर्वज्ञ सिद्ध न करके यही कहते हैं कि कोई-न-कोई सर्वज्ञ अवश्य है। सामान्यसे सर्वज्ञसिद्धि हो जानेपर पुन: इस विषयमें विचार किया जायगा कि सर्वज्ञ कौन हो सकता है। इस प्रकार 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात्', इस अनुमानसे सामान्यरूपसे सर्वज्ञसिद्धि होती है। __ प्रश्न—यह ठीक है कि कोई-न कोई सर्वज्ञ है। किन्तु वह सर्वज्ञ मैं ( अर्हन्त ) ही हूँ यह कैसे कहा जा सकता है ? इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं स त्वमेवासि निर्दोषों युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥६॥ हे भगवन् ! पहिले जिसे सामान्यसे वीतराग तथा सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है, वह आप (अर्हन्त ) ही हैं । आपके निर्दोष ( वीतराग ) होने में प्रमाण यह है कि आपके वचन युक्ति और आगमसे अविरोधी हैं। आपके इष्ट तत्त्व मोक्षादिमें किसी प्रमाणसे बाधा नहीं आनेके कारण यह निश्चित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy